श्री राधा जी को माता की सीख
श्री राधा जी को माता की सीख
श्री बृषभानु दुलारी और माता कीर्ती जी की लाडिली श्री राधा यद्यपि अभी बालिका ही है,किंतु माता कीर्ती जी के दृष्टिकोण से उनकी वय-संधि अवस्था आ गई है। बिटिया के लिये एक माँ के हृदय के डूबते-उतरते, सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का अद्भुत व मर्मस्पर्शी चित्रण किया है कवि ने इस प्रसँग में।
बालिका श्री राधा नित्यप्रति श्री कृष्ण के साथ खेलि-क्रीड़ा के लिये अपनी सखियों के साथ नंदगाँव की ओर जातीं है। माता कीर्ती जी को अब यह तनिक भी नहीं सुहाता। अत: वह बिटिया को रोकने का प्रयास करतीं हैं-
"काहै कौ पर-घर छिनु-छिनु जावति"
कितना स्वाभाविक चित्रण है जैसे कि एक साधारण माँ अपनी बेटी से कहती है-"क्यों दूसरों के यहाँ बार-बार खेलने चली जाती है।"
माता कीर्ती जी अपनी बेटी को समाज की ऊँच-नीच से अवगत कराना चाहती है-
"राधा-कान्ह,कान्ह-राधा है
ह्वै रहो अतहिं लजाति
अब गोकुल को जैबौ छाँडौ
अपजस हूँ न अघाति"
इतनी बात फैल रही और तू तब भी जाना बंद नहीं करती?
किंतु श्री राधा जी को माता कीर्ती की सीख तनिक भी नहीं सुहाई-
"खेलन को मैं जाऊँ नहीं?" क्यों नहीं जाँऊ मैं खेलने?
और आगे अपनी माँ से पूछतीं हैं-
"और लरिकिनी घर-घर खेलति,
मोहि को कहत तुहि।
उनके मात-पिता नहीं कोई?
खेलति डोलति जहीं-तहीं"
मेरी सारी सहेलियाँ इधर-उधर खेलती फिरतीं हैं, क्या उनके माता-पिता नहीं हैं? उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता, तो फिर मुझे ही क्यों?
खीझी हुई बेटी को माता कीर्ती पुनः प्यार से समझातीं हैं-
"जातै निंदा होय आपनी,जातै कुल को गारौ आवति" जिस कार्य से निंदा हो,कुल को कलंक लगे उसे छोड़ देना ही उचित है
और साथ-साथ बिटिया को सुझाव भी देतीं हैं-
"बिटनिअनि के संग खेलौ"- बस अपनी सखियों के साथ ही खेलों श्याम के साथ नहीं।
श्री राधा जी श्याम की निंदा नहीं सुन पाती, चाहे वह उनकी माँ द्वारा ही क्यों न की गई हो-
"कबहुँ मौकौ कछु लगावति,कबहुँ कहति जनि जाई कहि"
कभी मुझसे कुछ कहती हो, कभी कहती हो उसने 'ये' कहा, उसने 'वो'कहा।
और राधा जी श्री कृष्ण का पक्ष रखती हुई बृज में फैली हुई बातों को "बातें अनखौहीं" व्यर्थ की बातें कह कर उन्हें टालने का प्रयास करतीं हैं, इसके साथ-साथ माँ को तनिक सा रोष भी दिखातीं हैं- "नाहिं न मेरे जाति सही"- ये व्यर्थ की बातें अब मुझसे नहीं सही जातीं।
माता कीर्ती खीझ के साथ-साथ रीझ भी जाती है अपनी बिटिया की बातों पर-
" मनहिं मन रीझति महतारी" वह समझ रहीं हैं श्यामसुन्दर के प्रति अपनी पुत्री का अनुराग-भाव।
इसके उपरांत भी पूर्ण ममत्व और वात्सल्य को साथ रोकने की चेष्टा में है माता अपनी पुत्री को, उनके विराट जगजननी, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के स्वामी श्री कृष्ण की प्राणवल्लभा स्वरूप से अनभिज्ञ। इस समय तो वह केवल उनकी अत्यधिक लाडिली पुत्री हैं और वह हैं उनका सर्वाधिक हित चाहने वाली माँ। उनकी पुत्री का तनिक सा भी अपयश फैले,यह उन्हें स्वीकार नहीं। जिनके क्षण मात्र के स्मरण से ही कोटि-कोटि पातकों का अपयश मिट जाता है, उन्हीं को अपयश से बचाने के लिये प्रयत्नशील है माँ।
श्री राधा जी में इससे अधिक साहस नहीं है अपनी माता का प्रतिवाद करने का। इस समय वह अपनी माता की एक विनम्र आज्ञाकारी पुत्री हैं- अपने भगवतस्वरूप से सर्वथा भिन्न।
लाडिली बिटिया के हृदय को कष्ट न पहुँचे, अत: माता कीर्ती जी भी फैली हुई बातों को व्यर्थ की- "झुठै यह बात उड़ावति" कह कर बिटिया के अशांत मन को ढाढ़स बधांती है, किन्तु राधा जी को कौन श्री कृष्ण से विमुख कर सकता है?
श्री राधा जी माता कीर्ती की बात शिरोधार्य कर उदास मन से अपने कक्ष में आ जातीं हैं और मन ही मन हृदय से विनती कर श्री कृष्ण से यही मनाती हैं कि वही कोई राह निकालें-
"राधा विनय करहिं मनहिं मन
सुनहुँ स्याम अंतर के जामी
माता-पिता कुल-कनिहि मानत
तुमहिं न जानत है जग-स्वामी"
वह जानतीं हैं कि श्री कृष्ण के हाथों डोर सौंप देने से ऐसा कौन सा काम है जो न सधेगा?
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