भटक गया हूँ मै प्रभु , तृषित

हम सब पथिकों के जीवन मे बहुत प्रलोभन होते ही है परन्तु आंतरिक रूप प्राणवत प्राणेश प्रियतम ही आधार विषय हो भीतर की श्रीप्रीति स्वामिनी श्रीप्रिया के .... अर्थात भक्ति महारानी केवल इनके मधुरत्व को ग्रहण करती है सो यही भीतर उनकी सेवा में हो । प्रीति के प्रियतम । एक प्रार्थना ।

भटक गया हूँ मैं प्रभु , सच भटक गया हूँ !!
प्रभु , एक बार की भूल स्वीकार हो सकती है , अनन्त भूलें नहीँ । और मानव तन से पहले की भूलें भी आपने भुला दी , पर मानव होकर पशु वत मेरा आचरण यह आप क्यों भुलाना चाहते है ।
चलिये करुणासागर आप यह भी भुला दीजिये , परन्तु मानव हो कर आपके जीवन में आ जाने पर हुई भूलें ... आपके सन्मुख हुई भूलें ... !!कब तक मेरे उपकार के लिये आप दण्ड की अपेक्षा वेणुरव से खेंचते ही रहोगें गिरधर ।
दण्ड पात्री हूँ , कैसे मेरे हृदय से आप से भिन्न चिंतन हो सकता है , क्या यह हृदय अब भी आपकी वस्तु नहीँ । अगर है तो क्यों अनन्य आप ही स्मरण रहते । क्यों मेरे भाव में शुद्रता का प्रवेश होता भाव में क्यों आपका ही रस स्पर्श क्यों नहीँ रह पाता । क्या मेरे हृदय में आपके अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प है , अगर है तो प्रभु क्यों मुझे अन्य अभिलाषाओं से हटा कर आपके वेणुरव श्रवण से आपकी अव्यक्त पुकार सुनाई आती है । अगर मेरे हृदय में आपके अतिरिक्त कोई विकल्प है तो प्रभु दया करके आप मुझे हृदय से विस्मृत क्यों नहीँ कर देते । आपका अनन्त रूप से मेरे प्रति जो स्मरण है , उसके लिये पात्रता तो जब हो प्रभु जब मेरे हृदय में अन्य कोई अभिलाषा हो ही ना आप श्री युगल पद रज में लौटने के अतिरिक्त । परन्तु प्रभु विषयी जीव पर दया कर उसके असुरत्व की रक्षा मत कीजिये । एक बार प्रभु पूर्णता से मुझे एक क्षण वैसा विस्मरण कीजिये जैसा मैंने युगों से किया है , जानता हूँ यह सम्भव नहीँ आप हेतु । आप नहीँ भुला सकते । तो मैंने कैसे आपको भुलाया , क्या इसका दण्ड नहीँ मिलना चाहिये मुझे । सत्य में नेत्र आपके समक्ष जब खुल सकेंगे जब अनन्य रूप यह आपके ही कभी अभिलाषी तो हो । विषयी को क्या दर्शन देते हो प्रभु । इतने करूण मत बनो , प्रियतम ।। आप प्रभु हो , भगवान , यह मत भूलों , आपकी विस्मृति से बड़ा कोई अपराध ही नहीँ , दण्ड दीजिये प्रभु । आपका अनन्त प्रेम क्यों वेणुरव से मेरे विषयी चित्त में प्रेम राग रूप प्रवेश करता है । हम अखंड प्रेमास्पद है ना आपके , और आप हमारे एक मात्र प्रेमी है । प्रेमी हम नहीँ है , आप प्रेमी है ,आपके ही अनन्त प्रेम रस सागर की लहरें हमारे विषयी चित्त का कल्याण कर उसे आपके सन्मुख कर पाती है । आपके इतने सुहार्द सुधा के उपरान्त भी अगर मेरे चित्त में अन्य विकल्प कोई शेष है तो क्यों आप त्याग नहीँ कर पाते । एक बार आप त्याग कर दीजिये देह का त्याग भी मेरी आत्मा के अहम को तिरोहित नहीँ कर पाता । एक क्षण को आपका सत्य मेरे प्रति विस्मरण...  मेरे सारे अपराध के दण्ड को सिद्ध कर देगा ।
दीनबन्धु , मैं दीन कदापि रहा ही नहीँ । नाथ , मैंने स्वयं को आपके आश्रय में सनाथ पाया ही नहीँ । बड़ा कष्ट दिया आपकी इस वस्तु ने आपको । आप कल्याण करोगें यह विश्वास मुझे संकल्प-विकल्पों से शुन्य नहीँ होने देता , चित्त व्यर्थ विषयी अभिलाषी होता है । क्या सत्य में कोई आपका होकर अन्य विषय-वस्तु का संग कर सकता है ।  चेतन है आप ... आपके संग से अगर जड़ता का मुझसे त्याग नही हो पाता तो भी आप , कभी मंगलमय विधान से मुझे बाहर नहीँ फेंकते ।
... क्या आपके पास कोई दण्ड नहीँ मेरे लिए ... आपकी अनन्त बार विस्मृति का , तो मेरे हृदय में अनन्त प्रेम सुधा कब विकास होगा जो मेरे सत्य प्रियतम में ही समाई रहें । दुसरो न कोय ... कब हृदय कह सकेगा । तृषित ।।। जयजय श्यामाश्याम ।

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