वस्तु का सदुपयोग , तृषित
जय जय
आपको जो व्यक्ति मिला है, वह विश्वास करने के लिये नहीं, सेवा करने के लिये मिला है। आपको जो वस्तुएँ मिली हैं, वे संग्रह करने के लिये अथवा विश्वास करने के लिये नहीं, सदुपयोग करने के लिये मिली हैं।
अकिंचन
सत्य में चिंतन कीजिये क्या मिले हुये व्यक्ति की सेवा कर पाए हम । आज मिला हुआ अपरिचित या अतिथि ही क्या जिनसे व्यक्ति जन्म ले रहा है उन माता-पिता के प्रति सेवाभाव से खाली है । अपनी माँ को बहुत मानने वाली 5 बेटियां और ना मानने वाली दो बहुएं थी । अस्वस्थता में तय हुआ एक बेटी और एक बहु रात को रुकेगी । सब बेटियां रुकी नही पांचवी रात्री बेटियों ने रूकना असहज सिद्ध कर दिया । तब दोनों बहुएं रुकी । मैंने उस दिन जान लिया कि इनकी जिन्हें आवश्यकता अधिक थी अब वह भी थक गई तो अब वह और नही ... उस रात प्राण छूट गए । जीवन अवसर है सेवा का । शिशु रूप हम माँ द्वारा सेवित है । यह जीवन हमारा माँ की शिशु रूप सेवा का परिणाम है । तब सेवा सुरक्षा न होती तो क्या जीवन होता । अब उस सेवा से विकसित होता नर तनु सेवा हेतु आतुर न हो तो कितना बड़ा अपराध है यह । और सेवा सबकी हो , किसी किसी नहीँ प्रत्येक वस्तु का सदुपयोग हो । वस्तु का सदुपयोग जब ही सम्भव है जब वस्तु में भोग बुद्धि नही , प्रसाद भावना हो और प्रसाद का तो वितरण होता है , प्रसाद कणमात्र प्राप्य है , शेष का वितरण ऐसी वस्तु में बुद्धि हो ।
परन्तु यह सब कहना पढ़ना सरल है , इसे जीवन में उतार समत्व के लिये प्राप्त अधिक वस्तु को समान वितरण किया जाये । हमने तो हृदय से देखा बेचारा मानव अपनी ही वस्तु के सदुपयोग हेतु बाध्य है । सर्व वस्तु का वह क्या सदुपयोग करेगा । प्रकृति अपनी वस्तु का सहज वितरण करती है । गौ , नदी , वर्षा , वृक्ष सबको फल और निज सार रस बाँट देती है । ईश्वर वितरण में समान है , मानव नहीँ हो पा रहा ।
सँग्रह बुद्धि का सम्बन्ध जड़ संसार से है । और वितरण प्रणाली भगवत धाम से सम्बद्ध है , दान में वस्तु अपनी स्वीकार्य कर दी जाती है । वस्तु के सदुपयोग की आंतरिक सद्भावना हो तो वस्तु में ममता नहीँ रहती । क्या यह हमें मानवता की दुर्दशा नहीँ लगती कि वह वस्तु मोह में ईश्वर के मंगल विधान का अनादर करता है । विधान का आदर होने पर तो जगत सेवार्थ ही प्राप्त है , भोगार्थ नहीँ । और जगत में व्यक्ति - वस्तु में सेवा भाव का रस भोग भगवत अर्पण होना है । स्वार्थ हेतु भगवत-सन्त चरणारविन्द की नित पद रज ही हृदय से प्राप्य निधि हो । सँग्रह बुद्धि का मानव जब भक्ति पथ पर आता है तो रज का भी सँग्रह करता है , सँग्रह किस तरह हमारी बुद्धि में बैठ गया है । अगर वृन्दावन हृदय से स्वीकार्य हो तो क्यों रज भी सँग्रह हो । विधान में सँग्रह तो अनादर है प्रभु का । जिसे उन पर विश्वास है वह चुग्गे को भी क्यों जोड़ेगा । धन्य है पशु जगत , पक्षी जगत , जलचर - थलचर - और नभचर । मनुष्य के अतिरिक्त सभी जीव जो सँग्रह से मुक्त है । विधान के अनुरूप है । मनुष्य पशुओं के भोग का मानव हो त्याग न कर पाया तो पशु पक्षी के वैराग्य का त्याग उसने क्यों किया , संसार में ममता स्वीकार कर हमने स्व हेतु अनर्थ का पथ खोला है । ममता एक राम से समता सब संसार । तृषित , जयजय श्यामाश्याम ।
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