प्रीति प्रियतम , तृषित
प्रीति-प्रियतम
उन्हें ऐसे सौन्दर्य लावण्य माधुर्य की पिपासा जिसकी स्मृति से ही उनके ही दिव्य देह चराचर जगत प्रेमासक्त हो उनके प्रति आकर्षित होता है ।
जो खेंचता है वह कृष्ण है ।
परन्तु कृष्ण जो खेंचते वह खेंचने की शक्ति उनमें राधा है । राधा का स्मरण ही चराचर जगत में व्याप्त प्रीति तत्व को खेंचता है । जीव नहीँ , पदार्थ नहीँ , उसका मूल प्रीति तत्व उनके प्रति खींचा चला जाता है । जिसकी बाधा का नाम ही जीव तत्व है । मूलतः किसी भी प्रमाण से जगत का कारण प्रीति का विस्तरण ही तो है । जगत यहाँ वह है और उनसे झरता रस प्रिया । कही भी प्रीति न हो तो चित उस तरफ कभी गमन नहीँ करता । वस्तुतः वही मूल प्रीति (राधा) मूल प्रियतम से मिल कर तृप्त हो सकती है ।
इच्छा के त्याग को शास्त्र और सिद्ध क्यों कहते है , क्योंकि जीव की बाह्य इच्छा रुकें तब वह उस प्रीति को जी सकेगा और वह तो पदार्थ , वस्तु आदि सर्वत्र एक ही प्रियतम को खोज रही है । इच्छा रहित होते ही ... प्रीति ही व्याकुल हो वास्तविक पथ की और भागती और प्रियतम भी प्राकृत इच्छा से अप्राकृत हुई और त्रिगुणात्म से परे निर्गुणात्म स्वरूपा श्री आह्लादिनी राधा की और ही गमन करते है , ऐसा होते ही जीव के हृदय पर उसकी आत्मा के कारण उसके ईश्वर अपनी प्रीति संग प्रकट होते है । यह मिलन जीव का मिलन नहीँ है ,वह यहाँ सेवक है , यह उसके मूल बीज और मूल प्रकृति का यानी रूप और प्रेम का । कृष्ण और राधा का मिलन है ।
लौकिक इच्छा से जीव ईश्वर के प्रीति तत्व का गहन अनादर करता है । क्योंकि इच्छा शक्ति स्वभाविक रूप से कृष्ण अतिरिक्त कुछ स्वीकार नहीँ कर सकती । जीव के हृदय में कृष्ण की इच्छा या सुख रूपी श्यामा अर्थात प्रीति का प्रकट होना ही भक्ति है और यह अति न्यूनतम हो पाता है क्योंकि जीव न इच्छा को त्याग पाता है न ही अहंकार को । ईश्वर की व्यवहारिक लीला में भी उनके रस की बाधा ईश्वर सुख के अतिरिक्त इच्छा और अहंकार ही है जिसके कारण बाह्य विरह हुआ है । ऐसा ही जीव करता है । उसका वास्तविक आत्म तत्व जिसके लिये आत्मा ने युगों की यात्रा की वह प्रभु है परन्तु हृदय में नित्य प्रकट प्रभु अप्रकट अनुभूत है तो इसलिय कि वह हृदय पर प्रीति हेतु ही प्रकट होंगे । जीव राधा नहीँ ... निकुंज हो सकता है । जिसमें प्रीति अपने प्रेमास्पद से मिलती है । ईश्वर के सुख की यह प्रीति क्यों जीव में उतरी मात्र उन्हें सुख देने को ।
मान लीजिये प्रिया हिरनी के खिलौने में प्रवेश कर गई ... उन्हें रिझाने को पर वह खिलौना प्रिया की भावना प्रियतम सुख को समझ न सकी और उसे प्राकृत हिरनी रूप को सत्य समझ भागी ... हिरण के पीछे । जब वह वहाँ भागी तो प्रीति ने अपना लक्ष्य शयमसुन्दर नहीँ छोड़ा , बाह्य रूप से हिरण हिरणी का मिलन आंतरिक प्रीति और प्रियतम का ही मिलन है ... परन्तु हिरणी जब देह को खिलौना समझे तब वास्तविक इच्छा यानी श्यामा प्रकट होगी और वह यहाँ वहाँ नहीँ श्यामसुन्दर के लिये खेल खेलेंगी ...
मूल में हम प्रेम से खिलें है ... प्राकृत नहीँ ... हमारी आत्मा के मूल में प्रेम है ।
वह स्वभाविक उनकी और ही जाएगा अगर जीव बाह्य सम्बन्ध को भूल वास्तविक श्री हरि को सम्बन्ध स्वीकार कर लें । वह उनके अनुरूप उनके सुख हेतु प्रकट हुई है ... और वास्तविक प्रीति को कृष्ण का माधुर्य स्वभाविक खेंचता है यहाँ कृष्ण बहु जीवों के भोगी हो कर भी प्रिया रस से ही प्रिया के लिये स्मरण अवस्था में है ... वास्तव में द्वितीय पदार्थ का उन्हें स्पर्श ही नहीँ ... प्रीति के अतिरिक्त और वह प्रीति जीव की निज नहीँ है । जीव तो वस्त्र है प्रीति का ... वह कुंज है जहाँ प्रीति उनसे मिल सकें ... वह प्रीति उनकी राधा है । प्रेम हेतु वह प्रकट होते है मूलतः वह प्रेम बहु हृदयों में मूल में विद्यमान प्रियतम का सुख रूप प्रीति यानि राधा है ।
प्रियाप्रियतम् अर्थात आत्मा के मूल बीज और उसकी मूल प्रकृति का मिलन किंचित मात्र हृदयों पर होता है ... जीव का बाह्य स्वरूप भंग ही नहीँ हो पाता । इससे व्याकुलित कृष्ण खेंचते है अपनी प्रीत को ... अब भोगी ... वासना में डूबा क्या जाने कि वास्तविक इच्छा अचाह से प्रकट होगी और अचाह ही उनके निज स्वरूप की मिलन भूमि वृन्दावन है । श्यामसुंदर से मिलन उनकी ही प्रिया का सम्भव है ... हाँ कृपा से दोनों ही प्रकट है परन्तु भोग जगत में आसक्त जीव के खिलौने को सच मानने मिलकर भी मिल नहीँ पाते । मंदिर में आंतरिक तृप्ति इसलिय होती है क्योंकि कृष्ण तृप्त होते है प्रीति के अति निकट आने पर , जीव की इच्छा शक्ति राधा है यह वह जब जाने जब वह अन्य इच्छा न करें और वह हमारी हर इच्छा को प्रीति जानते है क्योंकि मूल में वही तो है और वह प्रीति भी हर वस्तु पदार्थ में व्याप्त कृष्ण तत्व का स्पर्श करती है इसलिये नई वस्तु जीव को कुछ आनन्द देती है , वास्तव में जीव के हृदय की इच्छा प्रीति है और वह कृष्ण की वह सुख भावना है जिसे कृष्ण खेंचते है और जो कृष्णाकर्शनी है । बिना हरि इच्छा और प्रबल भगवत रस की प्यास के यह विषय जीव जीव रहते नहीँ समझ सकता । इच्छाओं से परे कोई अवस्था इसे जानती है । तृषित ।
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