तृषित को प्रश्न की आवश्यकता , तृषित
रस वर्द्धक प्रश्न जिससे कही रस को अवसर हो यहीँ जीवन है ... निजता की तृषा यहाँ तृषित नहीँ ...
ऐसे प्रश्न करते रहिये । यही रस प्रदाता हो जाते है । स्व हेतु मेरे पास रस अधिकार नहीँ , तत्सुखार्थ ही यह प्रकट । अतः बाह्य व्याकुलता से भीतर प्रकट होता , मुझे भी तत्सुख व्याकुलता हो करूणा अर्थात । करुणा कठिन है , उस रस में अदृश्य होना सहज । करुणा है कल्याण की शक्ति । तत्सुख है रस की शक्ति । रस और कल्याण में द्वेत नहीँ है । मूलतः वास्तविक पिपासा तत्सुखार्थ है ... अर्थात कल्याण अर्थात शिवत्व अर्थात प्रकट सन्त । सन्त शिव है जीव संज्ञा वहाँ है नहीँ ... । सन्त नेत्र में बाह्य के कल्याण की भावना शिव है , सन्त हृदय में कृष्ण सुख की विकासशील भावना ही महाभाव यात्रा है ... तृषित ।
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