कैसा है श्यामसुंदर का सुख , तृषित
किशोरी जु के भीतर श्यामसुंदर सुख की अथाह इच्छा ही व्याप्त है जिससे उन्हें कभी तृप्ति मिलती ही नहीँ ।
श्यामसुंदर का कोई भोग्य सुख होता तो कभी तृप्ति सम्भव थी । परन्तु श्याम सुंदर में ऐसा दिव्य रस किशोरी संग से ही उनमें प्रकट हो गया है कि उनमें निज सुख मूल में कुछ रहा ही नहीँ है । बस प्रिया का हर्शन उनका सुख है । परन्तु प्रिया जु की तरह वह भी केलि रूप नित नव भावना से स्वतः खेलते है ... जिससे वह लीला नव रूप से नित खिलती है । परमार्थ सदा अतृप्त अवस्था है और वास्तविक सुख भी परमार्थ से ही अनुभूत होता है । निज स्वार्थ में हुए स्वार्थ सिद्धि की ही उपेक्षा चित्त कर देता है ... स्वार्थ पूर्ति में कभी रस या सुख सम्भव नहीँ । स्वार्थ सिद्ध करते करते जीव को स्वयं से आंतरिक घृणा भी रहने लगती है जिससे वह बाहर विकृत रूप से व्यक्त होता है ।
अपने प्रियतम के सुख को जीवंत करना ही लीला है ।
तृषित
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