प्रियतम की प्यास , तृषित

प्रियतम की प्यास अथाह है । अतः अनन्त रस सिंधु से वह लौटे है श्यामा के पास । वहाँ एक विशेषता है । यह उनसे ले नहीँ पाती और सर्वस्व स्वभाविक रूप से श्री मनहर का पाती है ।
और सर्वत्र अन्य रस में प्रियतम के संयोग के सुख का भोग था । गहन ज्ञान मार्गी भी उनके संग का सुख भोग किये बिन नहीँ रह पाते । क्योंकि जीव की वास्तविक तृप्ति वह है । उनकी तृप्ति श्यामा है परन्तु श्यामा स्वभाविक स्वत्व विहीन है । वह पूर्ण रूपेण प्रियतम की ही है ऐसा उनका सहज स्वीकार्य है । प्रियतम के लिये ही वह है अतः वह कृष्णार्थे है ।
व्याकुलता की परम् सीमा पर गिरधर  कही वह रस नहीँ पाते क्योंकि जहां भी वह सम्बन्ध रखते है वहाँ सन्मुख में ईश्वर से सुख आनंद की लालसा रहती ही । केवल प्रिया यह आनन्द अनुभूत नही करती क्योंकि प्रिया में उतरा श्याम मिलन का आनन्द भी उन्हें सुख देता , वह उस अवस्था का भोग नहीँ करती। मान लीजिये श्याम ने प्रिया कर का कोमल स्पर्श किया सरस् अंगुलियों से तो यह स्पर्श सुख सामान्य तौर पर स्पर्श पर सन्मुख में होता ही । प्रिया जु को स्पर्श से सुख होता परन्तु उनकी निज तृप्ति प्रियतम सुख है , स्वसुख भोग है ही नहीँ तो प्रिया जु का स्पर्श स्पंदन प्रियतम को ही होगा क्योंकि प्रिया का हृदय उनका ही पूर्व में है । इससे अतृप्ति और गहरी होगी मोहन की और प्रिया की सुधा सिंधु और गहरी होती जाएगी । क्योंकि प्रिया रूपी पात्र के में अहम रूपी तल नहीँ है । प्रिया को निज कही स्व आवश्यकता नहीँ , प्रियतम सुख अतिरिक्त । और निज सुख न हो तो संयोग में भी गहन अतृप्ति रहती है क्योंकि यह अतृप्ति ही प्रेम है यह ही प्रिया हृदय मधुर भाव प्रियतम में पुलकित होता रस है । प्रिया जु किसी प्रेम दशा का निज भोग करती तो प्रियतम में उनका रस संचार न होता । प्रियाजु उनसे भिन्न स्वयं को स्वीकार करती तो रस ले पाती । प्रियतम के भाव से भावित उनके अतृप्त नेत्र सुधा को तृप्त करने के लिये नेत्रों के सौंदर्य से प्रकट उनके ही सुख सार भूत सुधा कलश है वह । यह कलश कभी रिक्त नहीँ होता क्योंकि इसमें स्व नाम का तल नहीँ है । वह जितना पीते है उतना मधुर और शीतल हो उनकी प्यास ही विकसित करता है । प्रियतम की तृषा ही प्रिया जु की तृषा है । प्रियतम का रस प्रियाजु स्वयं का रस नहीँ स्वीकार करती ।  तृषित ।
प्रिया उपवन में पुष्पों संग है तो सौरभ और सुगन्ध प्रियतम के हृदय से प्रस्फुरित होगी ।

प्रेम-पन्थ सखि ! सबसों न्यारो।
प्रेम-काम दोउ राग रूप हैं, तदपि भेद इन को अति भारो॥
प्रेम प्रकास पुन्य अति उज्ज्वल, काम अन्ध अघ अरु अतिकारो।
प्रेम दिव्य मुक्तिहुँ सों दुरलभ, काम आसुरी बाँधनहारो॥
प्रेम सदा प्रीतम-सुख-साधन, निज सुखको तहँ कछु न सहारो।
काम देह-सुख में नित बाँधत, भोग-रोग ही तहँ अति खारो॥
परम त्यागमय होत प्रेम सखि! प्रिय के हित तपहूँ तहँ प्यारो।
काम निपट स्वारथ ही सजनी! प्रिय-सुख तहाँ न कोउ निरधारो॥
सुद्ध प्रेम हरिहुँ कों बाँधत, प्रेमी सदा स्यामकों प्यारो।
काम काय-बन्धनमें बाँधत, है वह नित्य नरक को द्वारो॥
कहँ लगि कहहिं दोष-गुन इनके, एक अमृत विष अपर विचारो।
एक स्वयं हरिरूप अनामय दूजो काल-रूप अति कारो॥
जय जय श्री राधे !

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