रूह में फासले नहीँ होते , तृषित
रूह में फांसले नहीँ होते
काश हम तुम मिले नहीँ होते
... पिया ... जब तुमसे न मिली , तब भी थी तो तुम्हारी ही थी न । यह मेरी आत्मा क्या कभी आपसे पृथक थी ... नहीँ न । आपमें डूबी ही थी भले मुझे ख़्याल न था । पर एक अनजाना सा रिश्ता था । एक स्वतंत्रता । स्वभाविक हम एक ही थे ... यह और बात है कि तब आपकी होकर भी जीती खुद को थी जबकि खुद हूँ ही कहाँ ... मैं पगली गुड़िया । मुझे क्या पता था कि कोई मुझसे खेलेगा ... खेलती रही तब खुद से । तुम हँसते होंगे न अपने खिलौने को खुद से खेलते देख ... अब खिलौने है , सो तुम्हे प्यार के सिवाय और आता भी क्या होगा तब । मेरी और से नही आपकी और से फांसले कभी हुए नहीँ । पर ...
पर ... फिर आप से मिलान हुआ । देखा आपको ... और ... ... !! हाय । आपकी ही गुड़िया आपसे कभी जुदा नहीँ , पर यूं मिलते ही मुझे मेरी जरूरत हो गई ... आपसे प्रेम हेतु । आप से मिलने के लिये हम दो होगये । वरना आप में ही तो थी न । और हूँ भी ... आपसे भिन्न भला कैसे हो सकती थी ।
पर रूह मिलते ही आपकी आंतरिक स्वभाविक स्पंदित अणु होने पर भी ... आप के लिये अब आपसे भिन्न हो गई ।
पिया जब मैं हूँ ही नहीँ ... आप ही है ... चाहे माना जाये या ना माना जाए , है आप ही । और कुछ है ही कहाँ सब आपकी ही भावना से तो बाहर हुआ जिसमें शक्ति भी आपकी । पर ...
एक से हम दो हुए क्यों ... प्रेमार्थ ।। आप मिलें और अब यह खिलौने की गुड़िया जैसे प्रेम रूपी प्राण लेकर आपके लिये जीने लगी ... ! पहले दो न थी मेरी यह रूह आपकी एक बिंदु मात्र थी ... आज आपको देख क्या ली यह आपकी ही बिंदु आपका ख्वाब देखने लगी । जबकि इसमें हसरत की जरूरत ही क्या ... गुड़िया भी एक ख़्वाब रखे ... जबकि है उसी खेलने वाले की । पर आपको देखने से यह आपका एक तरफा अनन्त प्रेम मुझमें से भी फुट पड़ा ।
पर कैसे मैं आपको सोचूं ... चाहूं ... मैं हूँ ही कहाँ ... आपसे पृथक हूँ ही नहीँ न ।
मोहन तुम्हारी ही थी मिली तो अब राधा हो गई ...
प्राण तो तुम ही थे न ... मिली ... फिर ... एहसास हुआ ... तड़प लगी ... और अब ... प्रीत हो गई ।
पर सच तो यही है मै नहीँ हूँ ... आप ही हो ... आप मुझसे खेलते ठीक होता ... पर ना जाने क्यों अब इस खिलौने में एक जिद्द ही छिड़ गई आप से खेलने की , जबकि आप तो मुझमें ही हो न । पर मुझमें हो यह बात प्रेम कैसे करा सकती है यह तो प्रेममय जीवन की अनुभूति ही हो सकती है । मैं सोचूं आप में डूब जाऊँ तो आपसे बाहर हूँ ही कहाँ यह विश्व आपका ही तो कोई रोम-कूप है न । मैं सोचूं आपको पकड़ लूँ ,समा जाऊँ आपमें तो आपने मुझे छोड़ा ही कहाँ ... ???
आप प्रेम को जी रहे सदा ... और प्रेम ने मुझे आपसे बिखेरा क्योंकि बाहर आ आपको देख सकूँ ... जितना प्रेम आप सदा से करते हो वैसा मैं भी आप से करूँ , परन्तु मैं हूँ ही नहीँ ... आप सच हो और मैं एक आपकी ही गुड़िया ... कठपुतली से थोड़ी दूरी होती मोहन । गुड़िया से लगता आप हृदय से लगा ही लोगें । देखो खिलौना हूँ पर जैसे आप खिलौने के लिये उसके सुख हो गए , वैसे मैं भी आपका सुख हो सकूँ । पर क्या मैं स्वभाविक ही आपका सुख नहीँ ... हूँ न । तो यह भावना क्यों ... तुममें थी , तुम्हारी थी , तुमसे ही थी तो बिखरी क्यों ?? क्यों फांसले हुए ... क्यों हम मिले और क्यों मिलकर यह बूंद जो तुम्हारी ही थी तुममें डूब ना गई । जरूरत क्या थी ख़्वाब की ... हसरत की । जब आप मेरे प्राण ही थे ... क्यों आपके प्राण हो जाने की तलब हो गई ... सच प्रीति विपरीत धर्म है ।
द्वेताद्वेत कर देता है ... एक थे ... दो हुए मिलने को ... फिर एक हो जाएंगे ... फिर तुम्हारे भीतर यह बिंदु तुमसे मिलने को तड़पेगी ... फिर बादल ... फिर वर्षा ... फिर झील ... फिर तुममें समा जायेगी और फिर तड़प तुमसे मिलने की तुमसे दूर कर फिर मिलाने को दौड़ेगी और कमाल यह तुमसे मिलने की तड़प में भी मैं हूँ तुममें ... तुमने कभी नहीँ छोड़ा ... मेरा भूलना जरूरी था कि कभी प्रेम हो और तूफ़ान उठे । तुम्हारी याद जरूरी थी ... वरना तुमसे बिखर तुम्हारे तक आने की यह शक्ति जो तुम ही तो हो । कितना प्रेम करते हो ... हाय !!
तृषित ।।
रूह में फांसले नहीँ होते
काश हम तुम मिले नहीँ होते
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