अप्राप्त का त्याग कीजिये , तृषित
अप्राप्त का त्याग कीजिये
सर्वस्व प्राप्त का ही नहीँ , सर्वस्व अप्राप्त ऐश्वर्य का भी प्रेमी स्वतः त्याग कर देता है । कौनसा त्रिभुवन प्रेमी का साम्राज्य है ? परन्तु प्रेम में सर्वता का त्याग है ... अप्राप्त सुख ऐश्वर्य का त्याग है । प्रेमी कहता है स्वर्ग त्याग दूँ ... प्राप्त हुआ कहां ... स्वर्ग तक की इच्छा का त्याग है । अर्थात मनुष्य को यहाँ वहाँ भटकाती इच्छा में वैकुंठ तक का त्याग करने का सामर्थ्य हो वह प्रेम पथिक है । अप्राप्त को आज हम क्या वारेगें , हम प्राप्त से सम्बन्ध नहीँ हटा पाते । मंदिर के पँखे पर भी नाम चिपका देते है , क्यों दान कर भी उस वस्तु में ममत्व का त्याग नहीँ हुआ ।
कैसे हम सर्वता का त्याग कर सकते है... जैसे श्यामसुंदर ने किया । जिसका सब है उसने ब्रज मेँ प्रेम रस हेतु सब छोड़ दिया , यह कठिन था , हमारा तो कुछ नही , बस भूल हो गई अपना मानने की वस्तु आदि को , पर है नहीँ । है शयमसुन्दर की , जब वह त्याग दिए तो हमारी तो है ही नहीँ ।
हमारा कोई सुख स्थिर नहीँ रहा और फिर भी स्वर्गीय भोग सुख हम नहीँ त्याग सकते । इस जीवन में विलास ही तो सब जुटा रहे ... मर्सिडीज में रहूँ ... विदेशी प्रोडक्ट्स काम में लूँ और बात करूँ धाम वास की । लोहे की कार मुझे छल गई तो क्या दिव्य स्वर्ग के भोग , छलेगे नहीं । मर्सिडीज तो स्वर्ग के यानों का अणु मात्र नहीँ । यहाँ के प्रोडक्ट्स बेकार है स्वर्ग के उस दिव्य अंगराग आदि पर जिनसे देव आदि का सौन्दर्य नित्य रह जाता है ।
कैसे हम प्राप्त का त्याग ना करने पर , अप्राप्त स्वर्गीय सुख का त्याग का जोर शोर से कहते है , प्राप्त भोग स्वाद सब जड़ है यहाँ , विलास की दिव्य स्थिति ही तो स्वर्ग है । विलासिता का ही त्यागी सन्त है । जिसके हृदय में विलास ना हो प्रेम हो ... प्रियतम का स्वरूप हो ।
धरा पर जीवन रहते भोग मुक्त होते ही प्रेम मय सागर में डूबा जीव स्वयं को सहज रस सरकार के सन्मुख उनके दिव्य स्वरूप का दर्शन करते पाता है , ईश्वर के दर्शन का बाधक है भोग । भोग नहीँ है तो प्रेम चित्त नित्य ईश्वर का दृष्टा है । सन्त हृदय ईश्वर का नित्य दर्शन प्राप्त करते है । अप्राप्त भगवत पद तक का त्याग हो , आज तो कथित वेषधारी m.l.a. के टिकट को नही त्याग सकते । तो भीतर अप्राप्त भगवत्ता का त्याग कैसे होगा ? जीव भगवान नही है , पर भगवान का है सो उसमें ईश्वरत्व का अणु है जो सर्वऐश्वर्य को प्राप्त करना चाहता है । इसलिये ही लक्ष्मी के प्रति उसके भीतर सँग्रह भावना है , जबकि यही विस्मृति उसे भक्त रूप त्यागनी है । भक्त ईश्वर नही है , लक्ष्मी नारायण की संगिनी है और भक्त हरि का दास है ।
जीव सभी लोकों में सब सुख बटोर भी भीतर के ईश्वर को तृप्त नहीँ कर सकता । क्योंकि प्राप्त और अप्राप्त सर्व जगत का हृदय से भगवत अर्पण कर ही वह भगवान का दर्शन कर सकता है ... ईश्वर प्रेम हेतु सर्वता का त्याग कर सकते है । क्या जीव जीवन रहते यह सर्वता जो उसकी है ही नहीँ इस भूल का त्याग नहीँ कर सकता । भूल सुधारना ही साधना है । भक्ति के लिये भोग मुक्ति आवश्यक है , मायाबद्ध स्वयं को नारायण बनाने निकला हुआ है जो वह होगा नही । नारायण दास हो जाना ही विज्ञान है , प्रेम है , विरक्ति गहन हुई तो सहज अनुराग गहन होगा ही । विरक्ति हृदय की दशा हो । स्वांग ना हो । तृषित । जयजय श्यामाश्याम । हृदय से कहिये कुछ नही चाहिये प्रभु आपकी चरण रज सेवा - दर्शना स्पृहा के अतिरिक्त । कोई पद ब्रह्मा तक का मुझे हृदय से त्याग है । सृष्टि क्रम में मै ब्रहा होने तक की यात्रा का आज ही त्याग करता हूँ । प्राप्त ही नहीँ , अप्राप्त सुख विलास का त्याग कर दीजिये । फिर मनहर ही रहेंगे सदा । लीलामय ।
या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहुँ परु को तजि डारौं।
आठहु सिद्ध निवौ निधि को सुख नंद की गाइ चराइ बिसारौं।
ए रसखानि जबैं इन नैनन ते ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक ये कलधौत के धाम करील की कुंजन ऊपर बारौं।।
रसखान जु ।
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