असत का ज्ञान और सत का संग सम्भव , तृषित
असत का ज्ञान और सत का संग सम्भव
हमारी जिज्ञासा ही विपरीत होती है ... राम क्या है ? कृष्ण क्या है ?
आदि ...
सन्त वाक्य है ज्ञान असत का ही होता है ... अहा ! हम समझते है ज्ञान प्रभु जी का हो सकता है । हम समझते है हम श्यामसुंदर को जान सकते है ... नहीँ ! असत अर्थात जड़ को जान सकते है ... इस संसार और देह को जान सकते है । देखिये शारीरिक विज्ञान कितना आगे और आत्म विज्ञान के रूप में सब भृमित । आध्यात्मिक ताप पर सब की अलग धारा का उपचार । शारीरिक उपचार की धारा मिल जाती है क्योंकि शरीर और संसार असत है , जड़ है । चेतन को जान नहीँ सकते ... राम का ज्ञान असम्भव है ... और राम का संग सम्भव है । असत का ज्ञान होते ही असत से सम्बन्ध छूट जाता है , झूठ क्या यह जानते ही झूठे से सम्बन्ध टूट जाता है । या सत के आवरण में यह इच्छाओं का जगत विस्मृति बन गया इसका बोध होते ही सत से सम्बन्ध हो जाता है । सत का संग ही सत्संग है यानी राम का संग । प्रभु का संग ।
आज हम राम का ज्ञान प्राप्त करना चाहते है ... और असत् का संग नही छोड़ सकते । सत्संग शब्द जिस भगवत कथा उत्सव हेतु अगर हम प्रयुक्त करते तो विचार कीजिये वही सत्संग है तो कितना सत्य का संग हम करते और कितना असत्य का करते है । वास्तव में आज भगवत उत्सव भी असत का संग नहीँ छोड़ पा रहे । हम राम कथा कर रहे थे ... विद्वान् कहते है आप अन्तः कथा या गुप्त कथा अधिक कहें ... जैसे कौशल्या जी को रावण ले गया , मंदोदरी का पुत्र अंगद , राम की बहन भी ... हनुमान जी का अहंकार ... ऐसे विचित्र गुप्त कथा हम कहें ...
यानि कुछ नया ... जबकि हमारा भाव था वह कहे जिससे उनके संग की प्राप्ति हो । उनसे प्रेम हो । उनके प्रेम के और वितर्क कहने से क्या लाभ ???
भगवता नही कही जा सकती सो करूणता का प्रयास हो ।
फिर लोग कहते नृत्य के सरल नये या क्षेत्रीय भजन भी गवाएं ... मेरे राम वन में गये ... भरत विलाप हो रहा । और हम अब नाचे ... नाच न हुआ तो कथा नीरस ।
अतः आज उत्सव में भी हम राम का संग नहीँ कर पाते ... राम का संग हो सकता है , असत को जानकर । उसके त्याग होते ही आप राममय है । वर्तमान हम भौतिकी जीव असुर रूप है ... रावण की तरह हमें राम के स्वरूप पर सन्देह ।
देखिये सत (ईश्वर) इतना गहन और विशाल सार सिंधु तत्व है जिसका पार पाया नहीँ जा सकता । ऐसा कोई नहीँ जो कहे मैं सम्पूर्ण राम - कृष्ण या शिव को जान गया हूँ । सम्पूर्ण ज्ञान असत का हो सकता है जिसके परिणाम में हम यह जाने की देह और संसार सत्य नहीँ है .. देह मैं नहीँ हूँ । वात्सव में देह का जीवन रहते सम्बन्ध न टूटे या छुटे तो सत का संग सम्भव ही नहीँ ।
अब देखिये कई भगवत प्रेमियों को हम समझा ही नहीँ पाते कि वह देह नहीँ है ... वह तो जिद्द कर लेते है धरती पर नर रूप आकर गले लगो ... जिस मिलन के परिणाम में आप यह शरीर छोड़ दिव्य लोक जाना चाहते वह क्यों यह तन लेकर आएं और प्राकृत रूप से मिलें क्या यह दैहिक मिलन आपका मिलन है । देह ईश्वर नहीँ ... ईश्वर जो दिव्य सच्चिदानन्द तत्व है वह यह देह स्पर्श कर भी दे तो यह भी दिव्य हो जाती फिर लौकिक सम्भव नहीँ ।
जैसे मीरा बाईं साँ अप्राकृत तनु हो गई थी । वह जड़ देह नहीँ थी । अर्थात जीवन रहते उनकी देह का भगवत स्पर्श हुआ । जिससे यह असत देह का त्याग हो गया और सत का संग ।
देह की धारणा की सिद्धि जब तक हो रही है ... तब तक असत की ही आसक्ति और लालसा बढ़ रही है ।
असत है ... जो नित्य नहीँ है ... जिसका विनाश होता ... जिसका संहार सम्भव ... जिसका कोई एक स्वरूप नहीँ ... जो बदलता रहें ... देह और संसार । यह संसार जिसकी सत्ता से प्रकाशित है और यह देह जिसके संग से जीवनमय है वह सत है । सत ही असत में प्रकाशित है ... विचित्र बात है कि सत असत का प्रकाशक है जैसे देह में आत्मतत्व रूप । और असत का ज्ञान असत का नाशक । यह जगत , यह देह किससे प्रकाशित है ... कारण तत्व क्या है वह कैसे मिलेगा जब हम यह जान जायेंगे जिसकी शक्ति बिना यह देह का कोई संगी न होगा । अर्थात उपकरण में सामर्थ्य और शक्ति किसकी है यह जब पता चलेगा जब हम उपकरण को शक्ति के बिना देख सकेंगे , जिससे उसके प्रति नहीँ उस शक्ति के पीछे आस्था हो जायेगी ।
हम असत के संगी वास्तविक नित्य ईश्वर का चिंतन मनन और गुण गान करें प्रति काल , हर समय उन्हें ही अनुभूत करें तब होगा सत्संग । सत्य यानि राम , राम का संग । ईश्वर का संग । सत्संग । उसके हुए बिना शान्ति सम्भव नहीँ ... बेचारी यह आत्मा अपने प्यारे प्रियतम से ही वार्ता कर सकती है । उसके पहले इसे शांति होगी ही नहीँ । क्योंकि आज लोक में आपके संगी क्या पता किसी जीवन उनसे ही युद्ध हुआ हो । वास्तविक नित्य संग तो एक है ... प्यारे प्रभु । तो ...
असत का ज्ञान असत का नाशक है और असत के गुप्त प्रकाशक सत रूपी ईश्वर से संग में सामर्थ्य रखता है । "तृषित"
कागज की दुनिया में पुतलों में जलती चिंगारी कहती थी राम
सपने बेचती दुनिया में
सदा तड़पती आत्मा पुकारती थी
कहां गए तुम राम ।
फसानें को सजाने हक़ीक़त उसमें उतर गई
फसानें की परत उतारी तो सिर्फ हक़ीक़त रह गई
वरना यहाँ ख़्वाब अधूरे रुख्सत होते है
और रूह की तलब बुझती नहीँ ...
जो जोड़ा रूह को रूह-आफ़ज (ईश्वर) से
एक मुलाक़ात में खोई सच्ची सुबहाँ मिल गई ।
!!तृषित!!
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