रसिक किंकरी प्रसादी , तृषित
श्री युगल से कुछ मत चाहिये । कुछ भी नहीँ , फिर भी कहे वें तो उनसे उनके निज धाम के रसिकों की सीत प्रसादी , श्री रसिक किंकरी प्रसादी का विनय कीजिये ।
कुछ भी नहीँ माँगिये क्योंकि लोहा कभी कुंदन हो नही सकता , रसिक किंकरी वह दिव्य अमृत है जो पारस रूप लोहे को स्वर्ण बना देती है ।
निर्मल रसिक के हृदय में प्रियालाल का अनन्य रस का सार सुख है , जिसे भोगी के भोग बन्धन चिंतन कर ही नहीँ सकते ।
नित सीत प्रसादी मिल गई तो नित सन्निधि मिल गई । और हम कभी भी ऐसा सुख अपने प्रयास से नहीँ पा सकते है । जीवन में नित रसिक सीत प्रसादी पाना तो युगल का आपको ना छोड़ने का प्रण ही है । वह नित रस स्पर्श करते है ... यथा आहार तथा विहार । रसिक सन्त का आहार युगल अधरामृत है अतः वह सीत प्रसादी भगवत प्रसादी का सार समेटे हुए है । भगवत प्रसादी सीधे जब भोगी पाता है तो भगवत अधरामृत का चिंतन नही करता । रसिक प्रसादी में भाव ही अधरामृत का है , अतः सीत प्रसादी ।
सीत प्रसादी न मिलें तो ब्रज रज की एक कण पा लीजिये । मात्र एक कण , आंतरिक तृप्ति हेतु । बाह्य रस के लिये प्राकृत भोग को भगवत अर्पण कर दिव्य प्रसाद रूप अधरामृत रस सक्त पाईये । जयजय श्यामाश्याम । तृषित
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