त्याग की धरा श्री वृन्दावन जिसे प्रभुता स्पर्श नही करती , तृषित

श्री वृन्दावन है त्याग की वह धरा जहाँ प्रभु भी प्रभुता त्यागे बिन प्रवेश नहीँ कर सकते । और प्रिया जु के रसिक नागर प्रिया जु का संग कभी तज नहीँ सकते तो वास्तविक प्रभु वह प्रेम है जिसके वशीभूत ईश्वर की ईश्वरता खो गई । अर्थात वृन्दावनीय रस । जहां की रज का कण-कण प्रभु की प्रभुता के त्याग से अनुराग पुष्प का झरा मकरन्द  है । वृन्द रज वह रस है जिसे प्रभु की प्रभुता का स्पर्श नहीँ हुआ , उनकी मधुरता का स्पर्श हुआ । ईश्वर के ईश्वरत्व को छुड़ा दे वह प्रेम धरा । प्रेम में सर्व की विस्मृति सहज होती है , सब कुछ जब एक में बदल जाये वही प्रेम है । प्रियतम ही संसार है प्रीतिरूप मधुरा का । तृषित ।

धरत पिया री चरण तहां , धरत हृदय भाव सुमन जहां ।
तज प्रभुता मिलत प्रभु जिन , तिन चरणन राग वृन्द रज चहां ।

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