संसारी और भक्त में भेद , तृषित

संसारी और भक्त में इतना ही फर्क है कि संसारी बेचारे युगल प्यारे प्रिया लाल को भी घाव , दर्द परोस देते है । और भक्त को घाव और दर्द आभूषण लगते है , वह कभी उन्हें पीड़ावत अनुभव ही नहीँ करता । अपितु उसे पीड़ा इतनी प्रिय होती है कि वह प्राणनाथ से भी पीड़ा का पीड़ा रूप बखान नहीँ करता । यह पीड़ा परोसनी भी हो तो इतनी सरस कर देता है इतना माधुर्य घोल देता है कि प्रभु दर्द की मिठास से सहृदय प्रकट हो उसे आनन्द रूप ही स्वीकार करते है । पुष्प जिन्हें चुभते है , उनकी कोमलता का ख्याल प्रेमी हृदय सदा रखता है । बाहर कितना ही कल्मष हो , हृदय माखन हो ही उन्हें रस दे सकता है । माखन (निर्मल) हृदय को तो वह स्वयं चुरा लेते है । यह कैसी कृपा है । पीड़ा को पीड़ा वत तो प्रकृति ही नहीँ परोसती । नीम की निम्बोली भी मधुर होती है और नीम की छाया स्वास्थ्य वर्धक । प्रकृति जेठ के ताप से पौदीनै की सुगन्ध बिखेरना जानती है - तृषित ।
आपकी पीड़ा में माधुर्य निश्चित छिपा होगा , उसे गोपन करेंगे तो वह मधुर मात्र रह जायेगी ...
भौतिकी जीव निज ताप और पीड़ाओं के निवारण हेतु भगवत सँग चाहते है ...प्रेमी भावुक को भगवत शीतलता और मधुता कोमलता की सेवा करनी होती है । तृषित ।

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