नवरात्र 1 , तृषित
नवरात्र
मानव का आध्यात्मिक एक नाम है , साधक ।
जिसे कुछ अभीष्ट हो वह साधक है ।
जिसे सधना हो , सिद्ध होना हो वह साधक ।
सिद्ध का अर्थ पकने से है , पुष्प खिला ही पक कर फल होने को है । मानव एक अंकुर है , जिसे धान हो कर कभी सिद्ध होना है , सिद्ध अर्थात् पका हुआ धान (चावल) ही भोग होगा ईश्वर का ।
साधना और जीवन यह अभिन्न है ,
मानव का लक्ष्य है पूर्णत्व । अंकुर भी हुआ , विकास भी , धान भी , हांड़ी पर चढ़ पका नही और भोग्य वस्तु न हुआ तो वह होना न होना व्यर्थ ।
मूल लक्ष्य है सध जाना , पक कर रसमय सुगन्धित फल होना सिद्धता है न कि ईश्वर की शक्तियों को समेट स्वयं को द्वितीय ईश्वर सिद्ध करना सिद्धता ।
वास्तव में प्रेमी - सिद्ध - योगी - ज्ञानी भिन्न नहीँ , सब एक है , भगवत् प्रेम प्राप्त जीव में सभी का स्वतः समावेश है और वही वह निर्मल सिद्ध है जिसका ईश्वर हेतु भोग लगाया जा सकें , भगवत् प्रेमी पका फल है , पका हुआ चावल है ।
जगत में लौकिक बोलचाल में साधक को सिद्ध कहा जाता है और सिद्ध को दिव्य शक्तियों से सम्पन्न माना जाता है जो कि सत्य है , परन्तु ऐसा सिद्ध शक्ति प्राप्त कर भी भगवत् अर्पण नहीँ हुआ , वह चावल पक गया परन्तु स्व हेतु , ईश्वर का भोग नही होना चाहा अतः छु लेने पर वंचित रह गया और वही सिद्ध अपनी सिद्धता अब जगत को दिखा रहा जबकि वह सभी शक्तियाँ है ईश्वर की ।
बैंक में जमा धन बैंक में होने पर भी रहता धारक है । शक्ति ईश्वर की है वह कैसे भी विनिमय कर सकते है । बैंक सच्चा है तो ख्याल रखेगा कि यह मेरा नही धारक की वस्तु और उपयोग के बदलें ब्याज भी देगा ।
ऐसे ही सिद्ध है , ईश्वर की कुछ शक्तियों का वहाँ प्रकट होने पर भी मूल धारक ईश्वर ही है ।
सिद्ध देह के बोध बिन साधक , अन्य लौकिक दृश्य सिद्धियों को सिद्धता जानता है , सिद्ध देह की जागृति ही वास्तविक साधना है , सिद्ध देह को ही भाव देह कहा जाता है ।
जडिय प्रदार्थ सिद्ध नही हो सकते , वह जड़ के लिये ही भोग्य होंगे , ईश्वर नित्य चेतन है अतः स्थूल देह की नही , चेतन देह की सिद्धता से ईश्वर को वह जीवात्मा भावदेह रूप भोग होगी ।
खैर यह सब गहन विषय है ,
नवरात्र क्या है - अवसर है , जागृति का , साधना का । मानव का एक नाम साधक है और नवरात्र साधना का समय ।
वातावरण परिवर्तन होने पर साधना से ही नव ऋतू में ढला जाता है ,
अभी मौसम बदल रहा है , और भीतर देह जड़ होने से बदलाव संग सङ्गिभूत नही हो पा रही अतः वह साधना करें तो सरलता से बदलाव के अनुरूप ढल जायेगी ।
बाहरी बदलाव का आंतरिक सदुपयोग का नाम नवरात्र है । रात्र का यहाँ बोधन महानिशा से है । महा निशा ईश्वर की विश्राम भूमि है । जिसे सिद्ध कर लेने पर नित्य विश्राम की प्राप्ति होती है , नित्य विश्राम अर्थात् महानिशा प्राप्त चित् कभी उद्वेग नही होता , बाहर से होने पर भी भीतर से कभी नही । महानिशा ही योगमाया है इसकी अधिष्ठात्री भुवनेश्वरी है और उसे ही त्रिपुर सुंदरी कहते है ।
महानिशा की स्थिति में ईश्वर के विलास का स्पष्ट दर्शन जीव वैसे कर पाता है जैसे लोक के विलास का ईश्वर दर्शन करते है ।
नव विधा है , नव साधना , नव सीढिया , नव प्रारूप , नवधा भक्ति का एक नाम साधना भक्ति भी है । यहीं नवधा की सिद्धता नवरात्र है ।
प्रथमम् शैलपुत्री , साधक जगत के गहनतम लोग शैलपुत्री की साधना को सर्वोत्तम मानते है , क्योंकि वह स्वार्थ प्राप्ति हेतु नही शिवत्व प्राप्ति की साधना है , गहन उन्माद और अनन्य भाव में डुबी साधना । साधक शैलपुत्री सा हो जिसे अभीष्ट शिव स्वरूप के सन्मुख दिव्य सुंदर इंद्र आदि यहाँ तक नारायण भी अभीष्ट न हो । वैष्णव जन को कह दूँ शिवत्व प्राप्ति बिना वैष्णव की सुगन्ध भी प्राप्त नही हो सकती । शिव हुये बिना वैष्णव नही हुआ जा सकता , शिव का अर्थात् कल्याण । वह अवस्था जहाँ स्वत्व का एक अणु नही । जहाँ परमार्थ का पूर्ण विकास हो , परमार्थ की पराकाष्ठा शिव है और उसकी अडिग प्राप्ति के लिये स्वयं शैलपुत्री तैयार है । अनन्यता रूपी शैल हो अर्थात् कितना भी लोभ - भोग प्राप्त होने पर , अपने अभीष्ट में दोष दिखाने पर भी जो न हिले । यह वर देगी माँ पार्वती ।
जिन्होंने वरण किया वहीँ वर दे सकते है , सभी शक्तियाँ स्वयं उस पथ से गुजरती है जिसकी वह अधिष्ठात्री , माँ शैलपुत्री भीतर के अभीष्ट को वर रूप में प्रकट कर सकती है ।
साधक की अनन्यता हेतु यह प्रथम पायदान है । जिसकी पूर्णता होगी सिद्धिदात्री पर ।
प्रथम साधक होना होगा , अनन्य उपासक । शिव को भी पति रूप में पाना सहज साधना नहीँ जबकि शिव ने अब सती (गौरा) के बाद पुनः स्त्रीत्व को ग्रहण न करने की आंतरिक भावना कर ली हो ।
शिव को वरण करने हेतु शिवा होना आवश्यक है । शिव की स्व हेतु अणु मात्र अभीप्सा नही , वैसा साधक हो । अतः शैलपुत्री की अभीप्सा सबसे उत्कृष्ट है , शिवत्व का पति रूप वरण जब शिव ने अखण्ड योग का प्रण किया हो तब भी । साधक इष्ट के चित् को कैसे पिघाल सकता है यह स्वयं शैलपुत्री कहती है ।
भगवत् इच्छा रही तो बात जारी रहेगी , सत्यजीत तृषित ।
जयजय श्यामाश्याम ।
Comments
Post a Comment