शायरी तृषित सितम्बर 16

हम लिखते तो कागज उधड़ जाते
हमने तो फूलों को भी खूब कुचला है
यह कोई और है जो झीने से कागज़  संग स्याही बन थिरकता है
उसमें से निकलती ख़ुशबूं ही सुख कर अल्फाज़ हो जाती होगी

अल्फ़ाज़ों के टुकड़े बिखेरने के सिवाय अब बाक़ी क्या है
ठण्डी साँसों की फुकनी में आग थी बहुत , जलने को बाकी क्या है

अल्फ़ाज़ अच्छे बुरे नहीँ होते , इश्क़ महकता है ,
मेहबूब की बेपनाह खूबसूरती की कुछ बुंदे मेरी आँखों से कागज पर टपकती है
अल्फ़ाज़ों का नहीं उनकी अदाओं का ज़ोर है
कि वो निगाह में ठहरते है और हम धड़कते है

***

ऐ ज़िन्दगी तू गुजरती चली गई फिर भी तुझे जीने की तासीर ना मिली

बर्बादियों की इंतहा का क्या कहूँ फ़िजूल मुक़द्दर को नूरे हकीक़त की ख़ुशबूं भी ना मिली

****

कुछ है जो जी रहा अंदर-अंदर
कुछ है जो मर रहा अंदर-अंदर

काश तुझे इश्क़ न होता हम सुकूँ से  मौत से तो पाक यारी कर ही लेते
काश मुझे भी इश्क़ होता बदन में बारिश भर हम बादलों सा सफ़र कर लेते

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