पुष्प का रस भृमर जानता है , युगल भाव वार्ता

[10/7, 12:49 AM] सत्यजीत तृषित: अधिकतर गहन रस को व्यक्त करता जान बहुतों को पीड़ा होती है , जबकि हम कहते कहते स्वयं को सम्भालना चाहते कि यें का वो न कह दे । परन्तु समर्पण सच्चा हो तो जब तक स्याही तब तक उनकी कलम , उनकी वाणी ।
इसी सन्दर्भ में किन्हीं से हुई वार्ता का अंश ... कुछ रस लाभ हो सके इस भाव से ...

जो लोग पुष्प नहीँ स्पर्श किये वह इत्र से सुगन्धित कागज को ही पूर्ण सौरभ समझते है ।
जो पुष्प को खरीदे , तोड़े , उन्हें भी वास्तविक सौरभ और माधुर्य प्राप्त नही ।
वास्तविक रस नित्य प्रकट और नित्य अव्यक्त भी , वह रसिकाचार्यों की सीमा रूप प्रकाशित । उतने तक बात और दर्शन सम्भव । वास्तविक सौरभ पुष्प के किसी रूप आने पर नही , पुष्प तक जाने और बिना उसे भृष्ट किये , बिना तोड़े , पुष्प तक पहुँचे और पुष्प को ही जीवन बनाये भृमर को प्राप्त और उसे जो प्राप्त वह अव्यक्त रस । उससे पहले और उसके बाद पुष्प को तोड़ लेने वाले सब उसके प्राकृत प्रेमी , पुष्प का अप्राकृत प्रेमी भृमर । अतः वास्तविक रस पिपासा अभाव से सदा गोपन है । रस जगत में गहन स्थितियाँ प्रकट ही जगत पिपासा हेतु है , श्री बांके बिहारी स्वरूप स्वयं गोपनीय वस्तु है । अपितु सार है जिसे खोल दिया गया है , खोल देने पर भी , लाखों दर्शन नित्य होने पर भी , वह निभृत निकुँज की एक प्राण एक तनु स्थिति प्राकृत चक्षु से दृश्य नही होती । लाख खोजने पर श्री जी और बिहारी जु संग नहीँ प्रकट होते , हो जावें तो कृपा और फिर गहन रसिकों को वही सम्पूर्ण रस का दर्शन होता है । कई गहनतम रसिको को केवल श्री जी का ही ।
प्रकट है फिर भी गोपनीयता गोपन है ।
ऐसा ही राधावल्लभ लाल जु और अन्य दिव्य विग्रह । यहाँ भी अधकांशतः युगल दर्शन एक रूप प्रकट होने पर भी नही होते है ।
और वहाँ कोई सिद्धि करें इस रूप प्रिया है और उतना स्वरूप लाल जु तो वहाँ अग्रिम भेंट में वह प्रमाण अप्रमाण सिद्ध होता है ।
वहाँ के लिये यही कहना उचित है कि कहाँ तक लाल जु प्रकट है और कहाँ तक श्यामा जु पता नही चल सकता । कभी वहाँ नेत्र श्यामा के तो कभी अधर ।  निभृत स्थिति प्रकट है परन्तु रसपिपासा न होने पर गोपन । अतः इतना गहन तो खुला ही बस नेत्र अभाव है वह पिपासा और सन्त कृपा से ही सम्भव है ।
रसिकों ने तो युगल के सम्पूर्ण दिव्यांगों का दिव्य रस उद्धृत किया जिसे भोगी जन पी नही सकते , और प्यासे जन छोड़ नही सकते । हमारे भोग गहरे तो भीतर रस में भी कलुता टटोल लेते , भोगी रस चर्चा पर भाग जाता है । प्रेमी को भोग नहीँ अतः वह स्वतन्त्र टिक सकता है ।
[10/7, 1:08 AM] सत्यजीत तृषित: हमारे निज रस से गहन वस्तु सम रसिकों अतिरिक्त प्रकट नही की , न होगी अतः व्याकुलता की वह लीला झांकियां कहने को मन व्याकुल ।
और युगल कृपा से सम रस के व्याकुल पिपासुओं में युगल की निकुँज, निभृत निकुँज चर्चा भी कभी श्री धाम में हो । जो रसिक जन प्रकट किये ।
[10/7, 1:24 AM] सत्यजीत तृषित: अजी गजब की स्थितियाँ वहाँ ...
[10/7, 1:24 AM] सत्यजीत तृषित: पूर्ण रस उन संग ही
[10/7, 1:24 AM] सत्यजीत तृषित: भगवत् मिलन में जीव सेवक हो
[10/7, 1:24 AM] सत्यजीत तृषित: युगल की भावनाओं की डोर भी सखियों हाथ रहती
[10/7, 1:24 AM] सत्यजीत तृषित: जैसे वह यहाँ सब सम्भालते वहाँ सब सखियाँ करती
[10/7, 1:24 AM] सत्यजीत तृषित: अतः वहाँ सखी महत्व । सखी युगल की रस प्रदाता , वहाँ । क्योंकि पूर्ण रूप समर्पित और भावना में गहन युगल मिलन का दर्श चाहती सो प्रिया लाल विवश और आतुरता वृद्धि ही होती जाती
[10/7, 1:40 AM] सत्यजीत तृषित: अतः वास्तविक निकुँज सखी प्रियालाल की मिलन की झाँकी ही भीतर सजाती ।
श्री विरह , मिलन की गहनता में ही कुछ प्रकट हो तो यह सखी स्व सेवा का दोष जानती ।
क्योंकि युगल की गहन मिलन लीला को नित्य सजा सकें वहीँ सच्ची सखी ।
जहाँ प्रिया लाल का विछोह न हो।
होने पर भी ना हो यह सखी की भावना , कैसे भी युगल का नित्य संग रहें ।
अभिलाषा भी नही , यह भी नही कि किशोरी जु को उलझा लूँ और वार्ता आदि से संग भोग करूँ , किशोरी जु और लाल जु का मिलन हो बस यही सखी की वन्दना , पिपासा ।
कई सखियाँ मिलन क्षण श्वसन तन्त्र रोक लेती इस भाव से कि मिलन रात्रि और गहरी हो ।
मिलन समय कई सखियाँ चित् को मिलन झाँकी के दर्श लाभ से भी दूर कर बाहर मन को इस भाव से लगाती कि मेरे मन में कोई भी हलचल न हो , दर्श के लोभ से युगल मिलन में बाधा ही होगी । और अगर मन में आया शीघ्र दर्शन करूँ तो मेरी इस भावना की पूर्ति युगल करेगें ही अतः चित् को उस ना रुकने वाली स्थिति में रोक लेती ।
भीतर रंगमहल में तो परम् भावनाएं सेवा में होती । वहाँ होना महाकृपा और महारस लाभ परन्तु उससे महत्व है वहाँ महात्याग , महाप्रेमी , महासेवा भाव रूपी भावना ही प्रवेश करती । जिसमें युगल के सुख का विज्ञान प्रकट हो , जो गहनतम स्थिति में जागृत हो सके , और प्रेम मूर्छा तक का त्याग कर सकें , स्पंदन , रुदन , स्वर आदि - आदि सब का त्याग , जब वह त्याग असम्भव हो तब ।
यह पथ सरल नही , बहुत गहन इसलिये हम कुछ भाव रखते बस , पथ को सरल तो जगत सोचता जानता । भावनाओं के जीवन्त होने पर उन्हें पी कर सेवा परायणता सहज नही । तृषित

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