वो तो एक है , शायरी तृषित
वो तो (रब) एक है , कमबख़्त हम बहुत है
ग़म तो एक है , बहलाने के अंदाज़ बहुत है
तस्वीर एक और निगाहें अनेक है
हक़ीक़त आग एक और फ़साने बुलबुले अनेक है
तुझे तेरा , मुझे मेरा रब मुबारक़ ...
तेरी-मेरी बाँहों में जो घुटता है वो एक है
कमबख़्त मुझे आरज़ू रह गई अपने बदन की सलवटें हटाने की
इतने बदन ना होते तो तुझमें-मुझमें बहता वो एक है
तेरी जो ईबादत है मेरे मोहल्ले में वो गाली है
तेरा जो पर्दा है मेरे चौक में वो होली दीवाली है
बात मुझे अपनी कभी समझ ना आई
हर लफ्ज़ कोई नकाब संग बाहर जो आई
... और मैंने उसकी निगाहों की सरगमें पढ़ लेने की अफ़वाह जो उड़ाई
मेरी फ़िज़ूल जेब ख़र्ची से ना जाने उसे क्यों और गुलाबों के होंठो की याद आई
एक इनायतें कारवाँ लेकर आसमां पर घिरी है
इस तरफ दिले-तलवार मेरी-तेरी बज उठी है
"तृषित"
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