शरद । अवतरण हुआ है प्रीत का पुनः ... तृषित

। शरद ।

अवतरण हुआ है प्रीत का पुनः

"स्पर्श" ऋतू यह ...

स्पंदन प्रति क्षण कह रहा ...

क्या तुमने छुआ अभी !

मेरे प्रियवर ।।

जैसे पुराने घड़े में नवीन जल भर दिया हो

और वह पुनः सजीव हो उठे

ऐसा ही कुछ है ... यह  शरद !!

नव तरँग - नव स्पंदन - नव सुगन्ध
नव रसातुर पुष्पांकुर !!

मद - रंग - रूप से सजे यें नव पुष्प भिन्न है

इनमें एक वधुता सी है

जैसे सौंदर्य आ गया हो

... और घूँघट अब भी ठहरा सा हो ।

सिया राम मिलन

या रस-रास रमण महोत्सव

शरद उतरी सुवासित मीरा सी ।

ग्रीष्म तलाशता रहा शीतलता

भीतर - बाहर रुखा कुआँ सा ।

लौट आई शरद समीर

भीतर बाहर उतरी ज्योत्स्ना सा ।

नीरस - जीवन हिय कुँजन में

मधु रसित समीर का पंकज स्पर्श सा ।

सूखती डाल पर भी कोंपल फूट पड़ती है

... उतर देखा था कभी

असर शरद के घुंघरुओं का ... !!
---- तृषित ----

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