वह वही थी , श्यामा । तृषित
वह निहार रही थी मुझे ...निहारती जा रही थी ... उसकी पलकों ने झपकना बन्द किया ... उनमें माधुर्य सरसराने लगा .... मैंने ध्यान से देखा । हाय , वह वही थी । ... यूँ कोई इस तरह विग्रह में मुझे निहारता नहीँ । उसने मेरे नैन से अपने अधर और मेरे मुख पर अपने नैन उलझा दिए । वह वही है ?? मैंने पुनः विचारा ... !! वही इस भाँति देखती है मुझे और कौन होगा फिर ? मेरे नयन धोखा नही खा सकते यह सामान्य नयन नही थे रूप मयी वह रस स्वामिनी मनोहारिणी मुझे दर्शन करने नहीँ , मुझे अपने मुख माधुर्य से नवरूप में नहलाने आई थी ... ... । उसे यूँ निहारते देख लौकिक धर्म निर्वाह आवश्यक न रहा और सहसा मेरे अधर पुकार उठे ... ... श्यामा !!
ओह , उसने सुना ! मुझे देखा ! चारों और देखा ! फिर मुझे देखा !
ओह श्यामा से वह पुनः ... !!
श्यामसुन्दर , क्या तुमने अभी ..श्यामा पुकारा । मैंने सुना , कहाँ है श्यामा जु । मुझे नही दिख रही ।
मुझे निहारते निहारते श्यामा ही तो वहाँ प्रकट हो उठी थी और कितनी सरस लालित्य से वह निहार रही थी , वह श्यामा ही तो थी ... मेरे नयन तो सदा ही उसे ही निहारने को व्याकुल रहते । सच मैंने उसे ही देखा , पर वह चली क्यों गई ? अब इसे मैं क्या कहु ... मुझे तो इसमें अपनी श्यामा ही दिखी , पर कहु कैसे ? ...
पलकें मेरी गिरती नहीँ
तेरे बिन दूजी चीज दिखती नही
अब तू ही बता क्यों न मूरत रहूँ ।
"तृषित" ।।।
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