उत्सव-ऋत लौट आई , तृषित
उत्सव-ऋत लौट आई
पुनः उसने ली नव वधु सी अंगड़ाई
कुछ छूने की तलाश में
सारा बाज़ार वो फिर आई
संग लें पिया को
काजल-कजरा , पायल-चूड़ियाँ
रंग-रौगन सब नये नये बटोर लाई
उपहारों की कतारों में
कुछ था वो भूल आई
कहती गई अपने साथी को
सजने की नव विधियों से वो
बावरी सारा बाज़ार टटोल आई
इस बार क्या लाओगे मेरे लिये "तुम"
लाती - सजाती कुछ वो भूल आईं
सब कह गई जो ना था जरूरी कभी
थी जरूरत "सुहाग" की वो ना अब कह पाईं
जिसके लिये सजना था ...
उसे पुरानी किताबों में छिपा आईं
नव वधु की वो फीकी हँसी
उसके सच्चे संगी को छिपा आईं
-- तृषित ।।
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