प्रेम तक पहुँचना सहज नही रहा , तृषित

प्रेम तक पहुँचना सहज नही रहा ।
प्रेम प्राप्त है , जीवन का कतरा कतरा प्रेम से सिञ्चित है ।
पर प्रेम प्रकट नही हो पाता क्योंकि मुख्य वजह है स्वार्थ ।
वास्तविक प्रेम तक जाने हेतु जो पगडण्डी जाती है वहाँ वहीँ चलता है जो चलते हुये चलना छोड़ चूका हो , जीते हुये जीना सौंप चूका हो ।
सुखी कभी ऐसा नही कर सकता और दुःख से हम बचते है , सुख चाहिये । आनन्द नही सुख चाहिये  । प्रेम आनन्द है और आनन्द बारिश है जिसमे बादल बरसते है , जल की बूँद मिलती है , धरती ध्वनित होती है , भूमि महकती है । आनन्द चहु और है , अनुभूत उसे होगा जो स्वयं ना हो । हमने देखा आनन्द को भी स्वयं में पीना हर कोई चाहता है , आनन्द वर्षा है जिसे जितना अनुभूत करो कम है । और चहूँ और है ।
प्रेम आपको स्वयं से तोड़ता है और सर्व से जोड़ता है । प्रियता वास्तविक जीवन है , जीवन में वही क्षण प्रिय स्मृति में होते है जब आप स्वयं को नही किसी और को जिए भले वो झरना हो , चाँद हो , फूल हो , कोई इंसान , पशु कुछ भी हो । स्वयं हेतु जीये सभी पल विष लगते है , अनुभूत कीजिये । माँ को शिशु संग जीवन आह्लादित करता है वो सहजता से जीवन भर उन स्मृतियों में चुर रहती है । प्रेम का अर्थ मेरा जीवन तुम । मैं खो गया जहाँ वह प्रेम ।

सुख को लोभी प्रेमी कभी नही हो सकता । दुःख से भयभीत जो है वह भी नही क्योंकि वह भी सुख का प्यासा है और सुख वृत्ताकार हो दुःख पर आएगा ही ।
दुःख के प्रभाव से जो जीवन्त हो वह प्रेमी होगा । प्रेम के समुद्र में तैरने हेतु डूबना जरूरी है , कूदना । दुःख का प्रभाव आप को जीवन्त करता है सत्य के निकट ले जाता है । वास्तविक दुःखी को कोई ठग नही सकता , वह स्वयं ही स्वयं को मुक्त करता है आप हेतु , इसलिये बहुत से दीन जन बारम्बार शोषित होते है , क्योंकि उस शोषण में वह पर सन्तोष और पर-सुख ही मान शोषण को स्वीकार करता जाता है , अतः वह सहज प्रेमी है ।
वास्तविक दुःखी व्यक्ति स्वार्थ और अहंकार को छोड़ देता है , अगर उसे पता हो दुःख का निदान सम्भव नहीँ तो दुःख को पीने की अपार सामर्थ्यता उसमें आ जाती है । कई लोग अपने रोग का इलाज़ नही करा पाते उनमें स्व रोग को विस्मृत करने की शक्ति विकसित होने लगती है । कई लोग भोजन नही कर पाते या पर्याप्त नही कर पाते तो उनमें शरीर के भोग में अरुचि घट सकती है अगर यह सब अकर्मण्यता और भीख न हो तो ।
दुःख (ताप) की यात्रा आपको जो आंतरिक आलोक देगी वह कोई साधना नही दे सकती । क्योंकि जुटाए ताप में बनावट है , प्राकृतिक ताप तो दुःख है , असमर्थता है , अभाव है ।
भोजन का त्याग तो धनिक भी करते है , शारीरिक कारण और फैशन से । परन्तु वह उन्हें आंतरिक आलोक नही दे सकता क्योंकि वह स्वभाविक नही हुआ ।
एक चपाती खाने वाले धनी सहजता भण्डार से मुक्त नही होते , खाते नही तो क्या हुआ ? खा सकता हूँ , सब भण्डार मेरा है कि भावना तो है ही ।
एक रोटी के टुकड़े के लिये कोई मर जाने को व्याकुल हो या शरीर के गहन से गहन कष्ट को सहन कर लें उसके लिये अन्न का एक-एक कण दिव्य है ।
मार्शल आर्ट और कई बौद्ध कलाओं में शरीर को दर्द के पार लें जाने की कला से अद्भुत दैहिक सामर्थ्यता से योद्धा रूप हम देखते ही है ।
वह सब सच्चे ताप , प्राकृतिक ताप से फीका है क्योंकि क्रिएट किया दर्द और दुःख है , वह अहंकार को विकसित ही करता है ।

वृक्ष और प्रकृति खिंचती है कारण "प्रेम" ।
जो जीवन रस को स्वयं न पी कर आगे बहाये वही बीज से पादप , डाल - पात फिर पुष्प और पुष्प से भी फल तक जाता है । और प्राकृतिक जगत कर्मफल का त्याग करता है , स्वकर्म फल का भोक्ता नही होता अतः वह जीव जगत को पुष्ट कर पाता है ।

प्रेम देने का नाम है , लेना प्रेम नही । प्रेम ही जीवन है , प्रेम ही ईश्वर और प्रेम ही समस्त की भी शक्ति । सर्व रूप शक्ति । वस्तु मात्र में भी जो चीज खिंचती है वो प्रेम है उसमें तत्व रूप ।
दो तरह के लोग प्रेमी और भोगी । ईश्वर तक प्रेमी गया सेवक होगा , भोगी गया ईश्वर ही हो जाएगा । भोग को सत्ता की तलाश । प्रेम को समर्पण की तलाश ।
जो देना जानता है वह मिल रही हर वस्तु और कण- कण का महत्व जानता है । उसे प्रेम का दर्शन हो रहा है ।
भोगी मन्दिर को संसार बना देते है ।
प्रेमी संसार को मन्दिर बना देते है ।
तृषित ।

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