भूमि और गौ का क्रय विक्रय , तृषित
पूर्व समय में भूमि ,गौ आदि का क्रय विक्रय नही होता था । यह सब पाप है । दोष है । दान और सेवा हो सकती थी । खरीदने बेचने से दिव्य अधिष्ठात्री शक्ति के प्रति वस्तु भावना आ जाती है । वस्तु के भाव से ही लाभ - हानि की भावना बनती है , पूजित वस्तु मानने पर श्रद्धा विकसित होती है ।
यह बात इसलिये कही कि भूमि के प्रति भी ईश्वर की शक्ति की भावना रहे । वह व्यापार से नष्ट हुई । हम लोग भगवान वेंकटेश संग भू शक्ति को पूजते है , और मन्दिर के बाहर यह भू शक्ति हमें वस्तु नजर आती है ।
युगल भाव से यह भू देवी ही श्री वृन्दावन रूप है । यह भू देवी चेतन है , चेतन भूमि पर सत् चित् आनन्द का आवाहन होता है , भले वह चेतन हृदय हो , अथवा धरा । अतः पहले भू शक्ति प्रकट होती है फिर ईश्वर दृश्य होते है । यही भू शक्ति ही गौ रूप भी जगत कल्याणार्थ हमारे संग है । अतः गौ सेवा समस्त भू मण्डल की सेवा है । केवल पृथ्वी नही , समस्त भू मण्डल , जहाँ तक भू अर्थात् सत्ता है । गौ सेवा एक ब्रह्माण्ड नही समूचे व्यापक कोटि जगत की सेवा तुल्य है । और यें ही गौ लक्ष्मी स्वरूपा , लीला शक्ति में गो भी एक गोपी है जिन संग भगवान ने उनका संग कर उन्हें सुख दिया और स्वयं सुखी हुये । भगवान के संग की गौ में सभी भाव होते है , वात्सल्य से माधुर्य तक सभी । अतः यथा भाव भगवान संग हुए , जिनका माधुर्य भाव उन हेतु बछड़े हो गए । जिनका वात्सल्य उनका भी बछड़े रूप वात्सल्य रस में रहे ।
आज भी गौ सभी भावों में स्वयं रहती ही नही , अपितु भाव प्रदायिनी भी है । गौ द्वारा लाभ का बहुत वर्णन हम सब सुनते है , परन्तु गौ जगत के सुख ही नही , गोपी प्रेम , श्री किशोरी चरण सेवा तक प्रदान कर सकती है । सेवा की भावना निःस्वार्थ हो अथवा भगवत् प्रेम का स्वार्थ हो। -- सत्यजीत तृषित ।
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