श्रवण इंद्रिय से सेवा , तृषित
यहाँ बड़ा शोर है ... इतना शोर स्वामी - स्वामिनी जु को स्पर्श ना करें , यहाँ मीठी मीठी नहीँ , झड़प भी हो रही जबकि यहाँ मेरे नाथ स्वामिनी संग प्रेम मय ... !!
हे भगवन् , हे मेरे प्राण ! मेरे प्रिय युगल कर्ण पुटों में यह लौकिक स्वर ना जावें । उनकी और जाती व्यर्थ ध्वनि प्रवाह मेरे कर्णपुटो में प्रवेश करें । यहाँ अत्यधिक शोर में युगल केवल स्वरूचि अनुरूप परस्पर नाम रस का दिव्यतम मधुर नाद ही श्र्वणित करें ।
... इस तरह कर्ण रूपी ज्ञानेन्द्रिय सतर्क हो गई , वह एक एक ध्वनि अणु को तत्क्षण जाँच रहे । ताकि प्रेममय रसमय भाव ध्वनि को युगल हेतु आगे बढ़ा रहे और निःसार ध्वनि को निकुँज परिधि से बाहर ही रखने हेतु स्वयं में उस ध्वनि धारा को विलय कर रहें ।
सेवा जीवन हो , तो सेवक सदा सेवामय हो सकता है । सौंदर्य और चेतन प्रीत को भगवत् अर्पण और व्यर्थ और जिससे युगल रस में एक क्षण विघ्न हो उसे स्वयं तक समा कर ।
श्री कृष्ण मुझमें सुन रहे है ... मधुर - कोमल शब्द उन्हें और व्यर्थता मुझमें ही थम जावें ।
इस तरह नयन ... वाणी ... स्पर्श ... नासिका भी सेवामय रहे ।
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