शरणागति और प्रपत्ति

शरणागति या प्रपत्ति

भगवत् प्राप्ति के सभी प्रकार जो शास्त्र में वर्णित है उनमें किसी को भी ना पा सकने पर जीव जब अन्नयगति होता है , उस अवस्था की प्राप्ति में अपने बल और सामर्थ्य को अपर्याप्त समझता है , तब उसको पाने के लिये शरणागति ही एकमात्र उपाय रह जाती है ।

शरणागति में महाविश्वास चाहिये , विश्वास में तीन दोष ना हो तो वह महाविश्वास होता है --
1 - उद्देश्य को दुर्लभ समझना । इस अवस्था में चित् में निरुत्साह का भाव आता है , हृदय अटल धारणा बना लेता है साधन-सामर्थ्य कुछ नही भगवत्प्राप्ति असम्भव है .. ! इस भाव में भगवत्कृपा का भी दर्शन नही होता ।

2-- सभी उपायों में फल्गु भाव अर्थात् सब उपायों को गौण समझ कर अकर्मण्यता रूपी शरणागति । उपायों में दोष नही , अपनी असमर्थता का दर्शन हो ।

3-- सर्वदा अपने दोषों का अनुसन्धान अर्थात् निरन्तर अपने दोषों का स्मरण करते हुये आशा, भरोसा छोड़ बैठना । "मेरे जैसा पापी कैसे प्रभु को पा सकता है" - ऐसा समझना दोष है । भगवान पर पूरा विश्वास होने पर यह तीन दोष नही रहते ।

शरणागति के 6 अंग भी बताये गए है -
1 - अनुकूलता का संकल्प यानि भगवान सर्वव्यापक हैं , वे चेतन और अचेतन सभी पदार्थों में ओतप्रोत रूप से अनुस्यूत हैं , भरे है । इस तत्व को विशेष रूप से बोधगम्य करके जीवमात्र के प्रति अनुकूलभाव रखना ही शरणागति का प्रथम अंग है ।

2 प्रतिकूलता का त्याग अर्थात् किसी भी जीव , शरीर मन और वाणी से हिंसा भाव न रखना , मन में भी द्वेष आदि न हो । अर्थात् अहिंसा की प्रतिष्ठा , किसी का प्रतिकूल नही होना । यह दूसरा अंग है ।

3 वो मेरी रक्षा अवश्य करेगें ऐसा विश्वास । भगवान सर्वशक्तिमान और दयामय है । जीव उनका सेवक और आश्रित है । यह अनादि काल से सिद्ध सम्बन्ध है । अतः अपने आश्रित वत्सलता के कारण वें आश्रित की रक्षा करेंगे । यह विश्वास रहने से सभी दुष्कृतियों से जीव रक्षा पा सकता है । भगवत् विधान नित्य मंगलमय है , जीव विधान में लेश मात्र अमंगल अनुभव न करें अगर भगवत्कृपा का पट खुल जावें । रक्षा का भी वास्तविक अर्थ ईश्वर हमसे भली प्रकार अधिक समझते है , वास्तविक रक्षा भगवत्सम्बंध के स्मरण की रक्षा है । जीव के नित्य स्वरूप की रक्षा ।

4 भगवान को जीव के रक्षक पद पर वरण करना । अर्थात् भगवान तो दया और सामर्थ्यता के सागर है परन्तु वह सभी के प्रभु है , इसलिये प्रार्थना न करने से या पुकार न होने पर वह रक्षा नही करते । जैसे प्रह्लाद जी के अन्तःकरण में उनको ही रक्षक जान सभी बाधाओं में भी अनन्य भजन था , उनमें भाव था कि जिसकी वस्तु वह जाने । हम उनकी वस्तु नही हो पाते , स्वयं को उनकी वस्तु जान लेने और मान लेने पर स्वतः सर्व रूप वहीँ रक्षक होते है । जब तक उनके द्वारा रक्षा का अभाव है और स्वयं के लिये तनिक विचलनता भीतर है , भगवत् रक्षा प्राप्त नही होती । मेरे सर्व रूप रक्षक आप हो नाथ ।
हम देखते है भौतिक जगत में कपट , भृष्टाचार , अपराधी भी रक्षा की गुहार करते है , सकाम जीव की भौतिक रक्षा और शरणागत की अखण्ड रक्षा भिन्न है ।  शरणागत प्राप्त कर्मफल को प्रसाद ही जानता है भले वह महारोग दिखाई देवें , शरणागत को रोग में भी भगवत् करुणा दृश्य होती है ।

5 आत्मनिक्षेप या आत्मसमर्पण । निष्काम भगवत्सेवा को छोड़ कर भोग अथवा मोक्षरूप कोई फल प्रपन्न (शरणागत) नहीँ चाहता । जो वस्तुतः शरणागत है, वह उपाय एवं फल-दोनों के प्रति अपना प्रयास करने से निवृत होता है एवं समझता है सब कुछ ही भगवान के अधीन है । आत्म समर्पण शरणागति का मुख्य अंग है ।

6 कार्पण्य । यानि दीनता अथवा चित् का गर्वहीन भाव । जब देखने में आता है कि अधिकार और उपाय आदि की सिद्धि के मार्ग में अनेक प्रतिबन्धक हैं , एवम् एक विषय सिद्ध होते न होते ही अनेक अनर्थ खड़े होते है तब यह विचार करने  पर चित्त स्वभावतः ही दीनभाव को प्राप्त होता है ।
अपनी समर्थता के संग सर्वसमर्थ की समर्थता का दर्शन सम्भव नहीं ... प्रेमी की असमर्थता में भगवान की समर्थता ही वहाँ प्रकट होती है , जितनी व्याकुलता से स्वयं में लघुत्व सिद्ध होगा उतनी ही ईश्वर का गुरुत्व अर्थात् सामर्थ्य प्रकट होगा ।
प्रपत्ति की महिमा ऐसी है कि वह प्रारब्ध का भी खण्डन कर देती है और नियति को भी लाँघ कर अपना सामर्थ्य प्रकट करती है ।

शरणागति अर्थात् प्रपत्ति के अंग की बात हमने की , इसके दो प्रकार है - आर्त और दृप्त जिनकी बात आगें करेगें ... जयजयश्यामाश्याम । सत्यजीत "तृषित" ।

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