सच कहु तुमसे , तृषित

सच कहूँ तुमसे

वैसे मुझे तरीका नही सच कहने का

मुझे तुमसे मिलने में हर्ज़ नहीँ

दिखती है एक तलब बाहर बाहर

जैसे मेरे आज ही होते पंख

... और मैं होती तेरे कदमों की ईबादत में

लगता है जैसे जुगनूं सी नाचने को बेताब हूँ

तेरे प्रेम में महकते बागानों में !

जैसे भवरां होती और तुझमें ही सिमटी होती

क्या ज़िंदगी - क्या मौत , मुझे तेरी मासुम हल्की सी आहट से फ़ुर्सत ना होती

पतंग होती तुझसे दूर भी होती तुझसे ही उडी होती , काश ज़िन्दगी की डोर तेरी चरखी से सिमटती होती

पर नहीँ ,

क्या मिलूँ तुमसे !

मेरा मिलन सच्चा नहीँ ,

प्रेम तो प्रेम है सच्चा-झूठा नहीँ

पर मुझे प्रेम हुआ ही नहीँ

मैं मिलती हूँ तुझसे

नहीँ ... नही तुम !

हाँ तुम मिलते हो मुझसे

पर वह मिलन सच्चा नहीँ !!

मेरा तुमसे मिलना ,
तुम्हारी और देखना ,
तुम्हें छुना सब ... लौटने को है

हाँ लौटने को है
मुझे मिलना भी होता है लौट जाने को ,
मैं तुम में उतरती हूँ , निकल जाने को
बेख़ुद होती हूँ फिर ख़ुद हो जाने को

तुम से मिलकर छुट नही पाती
ठहर नही पाती
सिमट कर बह जाने की फितरत मोहब्बत तो नहीँ

बहुत सुकूँ मिलता है ...
बहुत तुम्हारी सरगोशी से ही नशा हो जाता है
फिर महक आती है ,
अजीब सी हवा तुम्हें छु कर
ज्यों ही मुझे छुती है
सच
जैसे महकती लहरें उठे और
सरोवर बर्फ हो जाए
जैसे दिल में मुहब्बत भरा बादल लटकता संगेमरमर हो जाएँ

हाय जम जाती हूँ हवाओं से तुम्हारी
फिर तुम्हारी छुअन को क्या कहूँ

सुलगते पत्थर क्या कहे बारिश को
जो उसे तपिश से राहत ही ना दें
उसे झरना बना दें

क्या इश्क़ है तुम्हारा !!
हाय !!

पर मैं आती हूँ लौट जाने को
तुमने सोचा मेरे आँखों के झरने बहते है
सुख जाने को

जब हम मिलते है
तब तुम मिलते हो
मेरे जहन में तो तुम्हारी मौशिक़ी का नशा लेकर
लौटने का फ़िराक़ पलता है

काश कभी मेरी हसरतों में एक कतरा सच्ची मुहब्बत तेरी उल्फ़तो से छलक जाये

मैं ना लौटूं
ना कोई मंसूबा हो
तुमसे मिलकर फिर लौटने का

हम मिल भी लें ईश्वर से , तो वह मिलन भी लौटने हेतु का मिलन है । मिलन हो तो ऐसा हो जिसमें कम से कम लौटने की फ़िजूल गुस्ताख़ी ना हो , लौटना भी पड़े , छुटना भी हो रब से तो वहाँ एक आग हो , एक चिंगारी जो ख़ुद को उसकी जुदाई में विस्फोट करने को फबक रही हो । ईश्वर से हुई किसी भी तरह की मुलाकात के बाद का सुकूँ और वह ब्यान बाज़ी कहती है , हमें लौटना था सो मिलें । जिसे ना लौटने को मिलना हो , डूबना हो , ना निकलना हो , ना तैरना । वह इंतज़ार करता है सच्ची मुलाक़ात का जब लौटने का फ़ितूर उसमें ना हो तब ही डूबता है ।
"तृषित" ।।
क्या हम डूबने को तैयार है ?
शायद नहीँ , हमें लौटने का भुत सवार है , तैरने वाला आशिक नही कलाबाज़ है , जिसका करतब है समन्दर संग । आशिक डूबते है , बाहर आने को बेताब होते ही नहीं , डूबना ही अपने मेहबूब (ईश्वर) में , उनका जीवन है और छुटना ही मौत । अभी तो आशिकों की मौत को कम से कम मैंने तो ज़िन्दगी ही समझ लिया है यानी उस रस से छुटने को ...

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