ठाकुर का अतिनेह

*ठाकुर जी का अतिनेह*

अनेको चरित्र है ऐसे कि श्रीविग्रह ठाकुर प्रकट है , वह जीते है भक्त की सेवा भावना को । अनेको चरित्र ... शहद पास रखा हो जगा कर कहते है , मुझे चींटियाँ खा रही इसे हटाओ न । 

एक भक्त निवाई के श्री सन्तदास जी जगन्नाथ का छप्पन भोग देख आये , मन हुआ मैं भी ऐसी सेवा करूँ . कैसे तैसे वह सब तैयार हुआ , हुई सेवा । लो बिन बुलाये जगन्नाथ जी भी आ गए , और जम के पाये । बल्कि कहे कल और 56 भोग । अब कैसे तैसे एक दिन की फिर कैसे ?? पर भक्त जी दुगने उत्साह से तैयार अब , क्योंकि जै जै को रस मिल रहा , उन्हें भाया यह पता चलते ही अनन्त शक्ति समा गई जैसे । फिर कहे कल भी ... !! नित्य यही ... ! भक्त श्री सन्तदास जी असमर्थ लगे तो कहे पूरी के राजा साहब को स्वप्न में कि अभी यहाँ हूँ निवाई ,और यहाँ 56 भोग की व्यवस्था कराओ न , होने लगे नित्य 56 भोग । भक्त और भगवान की लीला चलती रही कब तक , वही जाने ।


रोनाल्ड निक्सन (श्रीकृष्णप्रेम) अनेक भक्तों संग श्री विग्रह संग अनेकों अनुभूतियाँ इन्हे भी हुई । बहुतों को होती ही है बस मन रम जावें । 

पर इस बार जो हुआ वह तो .. 

एक दिन सोते समय श्रीकृष्णप्रेम को आवाज आई -- दादा ! दादा । देखा तो आवाज़ मन्दिर की और से । पर वहाँ मन्दिर में केवल ठाकुर के सिवाय ... सोचते सोचते मन्दिर के निकट पहुँचे , फिर आवाज़ आई - "दादा ! शीत लगाचे , जंगला खुला आचे । दादा ठण्ड लग रही है , जंगला खुला है ।"

उनका शरीर काँप गया । झट मन्दिर का दरवाजा खोला जंगले का बन्द किया । ठाकुर को ठीक से ओढ़ा कर सुलाया । उढाते समय मृदु स्वर में कहे - ठाकुर , तुम्हें भी ठण्ड लगती है ?? 

(हम भी तो ऐसे सन्देह करते रहते श्रीविग्रह पर) 

उसी समय ठाकुर के नेत्रों से दो अश्रु बिन्दु टपक पड़े । यह देख श्रीकृष्प्रेम का प्रेम सिंधु उथल पड़ा । वें स्थिर न रह सकें । हा ठाकुर ! कह स्वयं भी रो पड़े । फिर किसी प्रकार अपने को सम्हाल कर अपने धारण वस्त्र से ठाकुर के आँसू पोंछ दिये । 

ठाकुर तो सो गए होंगे । पर श्रीकृष्णप्रेम ना सो पाये फिर ।। उनके कानो ठाकुर का मधुर स्वर गूँज रहा था । सारा प्यार "दादा" इन दो अक्षर में उढ़ेल दिए थे ठाकुर । ठाकुर के प्रेम बादल उमड़े हो जैसे इनके हृदय आकाश में और प्रेम वर्षा में हृदय भीगता गया । ठाकुर की प्रेम वर्षा हृदय में कहाँ समाती , बहने लगी अविरल नेत्रों से । नेत्र झरी बढ़ती ही गई , आजीवन अश्रु धार से वक्ष भीगा रहा । 


ऐसे दृष्टान्तों और चरित्रों से बुद्धि चक्कर काटने लगती है अपने जाने हुए ब्रह्मांड के ... असम्भव ! क्या पाषाण धातु का विग्रह रो सकता है ? आता ही है आधुनिकता में यह भाव , पढ़ते हम बहुत है प्रत्यक्ष घट भी जावें तो भी भ्रम रहता है , अन्वेषण होता है कोई शास्त्र फैला कर बैठ जाता है कोई प्राप्त विज्ञान के पन्ने पलटता है । how can possible it ? आता ही है मन में । हमारे ना भी आवे तो भी हम जानते है हर कोई नही मानेगा । हम यें मान सकते है wifi , ब्लूटूथ से एक फ़ाइल भले वीडियो हो इस यन्त्र से उस यन्त्र चल जाती है । जीवन के उतार पर बैठे ग्रामीण निर्मल जीवन को यह सब कोतूहल लगता है । इधर की फोटो उधर कैसे गई । 

वैसे ही नव भारत में भगवत्प्रेम कौतुहल है ? जिज्ञासा है ? श्रद्धा और आस्था है परन्तु उनमें गाढ़ता - एकता अनन्यता नही । कई प्रेमियों से सुना मैंने , अपने घर तक सुनता हूँ जब बात होती बच्चों को भी लगन लग जावें ... प्रेमी कहते है , हमारा ही जीवन ध्वस्त हुआ , इनका रहने दीजिये , अर्थात् लौ पक्की नही हुई । राग है कुछ माया में शेष , कहने की बात नही पर बरसाने इस बार यही कहा ... रानी जु । गोद की "तृषा" आपकी बावरी तृषा हो जावें , आधुनिकता बटोरती नही , ब्रज रज की सेवा करती तृषा , कठिन है ... पर कृपा से क्या असम्भव है ... ... !! 

आइये गहन भगवत् प्रेमी का चिंतन जाने इस घटना पर ... 

ठाकुर क्यों रोये यह वह ही जाने , और उन्हें वैसे भी कोई समझ नही सकता । 

यशोदा मैया गोद से उतार दूध उफनता देख गई तब भी आँसू आये थे । यह अतृप्ति दूसरे प्रकार की थी । इस बार प्रश्न उदरपूर्ति हेतु नहीँ , उनकी अंतरतम आत्मपूर्ति का था । ठाकुर आंतरिक आत्मा का सम्बन्ध है निज भक्तों से । उनके प्रेमरस के बहाव से यह रससागर वर्द्धमान पिपासा से स्वयं आतुर है । भक्तों की प्रेममयी सेवा से वें इतने सुखी होते है कि आत्मा का नित्य आनन्द स्वरूप से भी नही । सिद्ध भक्त तो पहुँच जाते है मानस सेवा यात्रा से निज धाम सेवा में , नित्य सेवा में । परन्तु साधक भक्त की प्रीत से वें विग्रह में साक्षात् रूप सेवा लेते है । इस तरह साधक का कल्याण होता है , माया बन्धन टूटता है और ठाकुर और भक्त की आत्मा को जीवन मिलता है । 

भक्त जितने प्रेमयोग से सेवातुर होते है , वें उतने ही प्रेमातुर ग्रहण करते है । भक्त की शृंगार आदि सर्व सेवा को प्रेम से पाते है , जैसा भक्त पहना दे , खिला पिला दे उसमें मगन रहते है । 

भक्त को स्वयं तृप्ति जब मिलती है अपनी सेवा से जब सेवा की ठाकुर को स्वयं आवश्यकता हो , उन्हें किसी वस्तु की आवश्यकता न हो तो सेवा तृप्ति नही देगी । 

ठाकुर को भूख हो , जी पूर्ण से पूर्ण , आप्तकाम , एकात्म स्वरूप में पूर्णकाम भगवान को भूख प्यास कैसी ? यह अखण्ड अनन्य आप्तकामता उनका बाह्य स्वरूप है । ज्ञानी , विवेकी हेतु यह भी आभास होता है बड़े से बड़े योगी को पूर्ण रूप इसकी स्पष्ट सिद्धि नहीँ होती । क्योंकि दर्शनातुर जो वास्तविक स्वरूप है आंतरिक निज- स्वरूप वह प्रेमातुर स्वरूप , प्रेमातुर निकट भक्तों समक्ष ही प्रकट है । उस स्वरूप को भूख-प्यास , गर्मी-सर्दी सब अनुभव होता है , उसकी तृप्ति होती है भक्त द्वारा प्रेम से दिए सेवा उपकरणों से । आवश्यकता इन्हे ना हो तो नित्य भावराज्य की भावना ही कैसे हो ? वहाँ तो बड़े कोमलतम भावनाओं से भगवत् सुख का न्यूनतम अन्वेषण कर उसे सिद्ध ही तो किया जाता है , पाषाण हृदय नही अति कोमल हृदय स्वरूप वहाँ , आंतरिक आवेगों से भी जो नाच उठे । 

कहने का अर्थ यह वास्तव में भक्त की प्रेम सेवा के भूखे है । *भक्त की निर्मल प्रेम-सेवा से इनकी उतनी ही तृप्ति होती है , जितनी भक्त में प्रेम सेवा की भूख (व्याकुलता) होती है* - 

नानोपचारकृत पूजनमार्तबन्धो ,

प्रेम्णैव भक्तहृदयं सुख विद्रुतं स्यात् ।

यावद् क्षुदस्ति जठरे जरठा पिपासा ,

तावत् सुखाया भवति ननुभक्ष्यते यत् ।। 


*भगवान आर्तबन्धु है । वें भक्तों में प्रेम-सेवा की जितनी भूख देखेंगे उनकी अपनी जठराग्नि उतनी तीव्र होगी । उसकी प्रेम सेवा ग्रहण करने हेतु उतना ही अधिक व्यग्र हो उठते है और उस सेवा को ग्रहण कर तृप्त भी उतने होते है , शबरी के बैर , विदुरानी के केले के छिलके स्मरण कीजिये ।*


भगवान का यह प्रेम-माधुर्य रूप उनके अपने अनन्त ऐश्वर्य को ढक देता है । रस की अशेष तृषा से वे अपने ऐश्वर्य को भूल नित्य प्रीत-सेवा-रस के तृषित रहते है । ऐश्वर्य भूलते ही नही उनकी दिव्य योगमाया शक्ति उन्हेँ भक्त की प्रेमसेवा-रस का मधुरपान कराने के लिये ऐश्वर्य को छिपा उन्हें मधुर नर-लीला के इतना उपयुक्त बना देती है कि उन्हें साधारण जीव के समान ही भूख-प्यासादि सताते है । अपने स्वरूप के अनुकूल सेवा उन्हें सुख और विपरीत कार्य से कष्ट भी इन्हें होने लगता है । श्रीकृष्णप्रेम उनसे पूछकर - "ठाकुर, तुम्हें भी ठण्ड लगती है ?" उनकी रसमयता के विपरीत कार्य किया , ऐसी भावना आई उनके ऐश्वर्य के विमस्मरण न होने से जिसे वें स्वयं भुला चुके है । वह रसिकराज सेवातुर खड़े थे वरन् ऐश्वर्याधीश को कौनसी ठण्ड लगें , ऐश्वर्य तो तज गया था , भक्ति में भक्त और भगवान दोनों वैराग्य लेते है और अनुरागित होते है । भगवत्ता त्याग माधुर्यता में उनका वास्तविक हृदय छलकता है । इस बात ने रसमयता के विपरीत भावना की उनकी सेवा हेतु जठराग्नि को जगाकर उस पर ऐश्वर्य भाव का घड़ा भर उड़ेल दिया , सेवा हेतु ही तो श्रीविग्रह में वह आमन्त्रित होते है और उसी आमन्त्रण पर वह उस हेतु खड़े हुये तो न पहचानने सा काज किया । ठाकुर की यथार्थ सेवा कब हो सकती है यदि ठाकुर की आंतरिक आवश्यकता का पता नही हो ? सेवक स्वामी के मन को पूर्णरूप जान ही यथेष्ठ सेवक हो सकता है । 

ठाकुर श्रीकृष्णप्रेम के प्रश्न का जैसा उत्तर दिया आँसू बहाकर वैसा वे वाणी से नही दे सकते थे । ठाकुर के आंसुओं की कीमत श्रीकृष्णप्रेम से ज्यादा कौन जानता ? उन्होंने अपने धारण वस्त्र का वह छोर फाड़ लिया , जिससे आँसू पोछे थे और आजीवन उसे चाँदी के ताबीज में अपनी छाती से लगाये रखा । 

भक्त के भगवान को कौन समझ सकता है , प्रेम पथिक कुछ अनुभव कर सकते है , 'तृषित' जयजयश्यामाश्याम ।।

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