श्रवण भक्ति और सेवा , तृषित

श्रवण
यह एक विज्ञान है , गहन विज्ञान । श्रवण रहस्यों पर ही गहन शोध हो तो अनुपम परिणाम आ सकते है । ईश्वर की कृपा से साधना भक्ति से परा भक्ति पर गहन रहस्यों का कभी कुछ शोध हो ।
नवधा में श्रवण प्रथम है , यह रहस्य है अभी तक । सत्संग - कथा आदि पर हम जोर देते बहुत सुनते है परन्तु श्रवण है क्या ? सुनने से क्या होता है ? और कैसा श्रवण हो ? क्या श्रवण शक्ति वास्तव में कुछ अनुपम वस्तु दे सकती है ?  आदि ...
श्रवण के लिये आवश्यक है श्रोता । जल के लिये आवश्यक है प्यासा ।
श्रोता कौन है , जिसमें स्वत्व का लोप हो । जो अनभिज्ञ हो । ज्ञाता तो वक्ता होगा , श्रोता नही ।
संसार में बाहरी रूप से सभी श्रोता लगते , परन्तु वास्तविक श्रोता कभी वक्ता नही हो सकता । वह पी रहा है , पिने पर तर्क वितर्क और प्रतिक्रिया भी नहीँ देगा , बस पियेगा सदा ही ।
कथित धार्मिक जगत में आपको वास्तविक श्रोता नही मिलेंगे , वहाँ सब वक्ता ही , श्रोतव्य का अभिनय । अथवा वक्ता होने हेतु ही श्रोता ।

श्रवण विज्ञान पर गहन शोध होने पर ही उसका महत्व निकल सकेगा ।
बालक नेत्र से नही प्रथम शब्द से ही जगत की और आकर्षित होता । उसके भीतर शोर उतरता , उसमें धीरे धीरे हित और व्यर्थ शब्द की विभक्ति स्वतः होने लगती । जैसे बाज़ार का शोर और उस शोर में माँ की आवाज़ ।
नन्हा शिशु भीतर जाने वाली कौनसा शब्द मेरे हेतु है कौनसा नही इससे विचलित हो उठता है और रोता है ।
अवस्था होने पर हम गहन शोर में भी हमें सुनना वह सुन सकते है । जैसे विद्यालय में खेलते बालकों के बीच गहन शोर में शिक्षक वार्ता करते है और अवांछनीय श्रवण का सहज त्याग करते है ,ऐसा हम सब करते है ।
किसी शोर की जगह आप वॉइस रिकॉर्ड कीजिये , उसे सुनिये उसमें इतनी तरह के शोर को आप महसूस करेगें जो आपने स्वयं रिकॉर्ड के समय नही सुना जबकि वह ध्वनि हमारी कर्ण शक्ति के अनुरूप ही थी , यन्त्र सभी ध्वनियों को रिकॉर्ड करता है और हमारे भीतर उनका चुनाव गहरा जाता है । शहरी को यातायात का शोर प्रभावित नही करता , वन्य जीव या भील आदि हेतु वह कर्ण शक्ति के लिए हानिकर है ।
यहीं चुनाव की जो सुनना वही सुनाई आवे श्रवण भक्ति रहस्य है । अर्थात् मूल में अनहद सुनाई आवें , या रस जगत में श्यामसुन्दर की नित्य वेणु ध्वनित हो , हमें श्यामसुन्दर की सुननी ही नहीँ अतः सुन नही पाते , जब सत्य से प्रीत होगी तो वही ही सुनाई आएगा जो सत्य शब्द है ।
श्रवण की गहनता साधना की समाधि से भी गहन है । समाधि शून्य अवस्था है , श्रवण में जगत की शून्यता से वास्तविक शब्द को सुन लेना सिद्ध होगा ।
ऐसी गहन श्रवण शक्ति कुदरत में अनुभूत होती है जिनका लौकिक जगत में पारलौकिक सौंदर्य और रस प्रकट सा लगता है ।
भक्ति पथ पर चलने वाला केवल वक्ता हुआ तो वह भक्त नही भगवान ही होना चाहता है ,
भक्त अनुरक्त , जीव नित्य दास है , ईश्वर से अभिन्न परन्तु भक्ति में वह ईश्वर का सेवक ।
सेवा-सेव्य-सेवक-स्वामी सभी एक । परन्तु एकता से रस की सिद्धि नही होगी , उस हेतु सेवक ही होना होगा । माँ के गर्भ में शिशु जब होता है तो वह उसे अपने में होकर भी पृथक् अनुभूत करती है , और अपने में होने पर भी उसकी सेवा भी करती है , जैसे कई महिला तब ही दूध आदि पान करती है वह गर्भवती हो यह सेवा है नन्हें शिशु की । स्वयं हेतु का भी त्याग इसमे और यही भावना गोपी जीवन का रहस्य ,कुछ भी पीकर पुष्टि प्रियतम की ।
नवधा भक्ति का एक एक सोपान आश्रय को गाढ़ा करेगा और आत्म निवेदन स्वतः हो जाएगा । वस्तुतः सेवक होना सरल नहीँ और जो सेवक होना नही चाहे वह भक्त नही हो सकता ।
जगत में सेवा भी आज बड़ा व्यापार , होटल आदि रूप में । वहाँ सेवा का अभिनय , वहाँ सेवा की शिक्षा-दीक्षा होती । वेटर को भोजन हेतु आने वाले से आत्मीय प्रेम नहीँ । परन्तु सेवा कला सीख वह अभिनय सुंदर करता है जिससे वहाँ बैठे व्यक्ति की सत्ता सिद्ध होती , प्रत्येक व्यक्ति राजा होना चाहता है , ईश्वर होना चाहता है अतः होटल आदि में उनकी यह भावना सिद्ध हो जाती है । वास्तविक चाकर कभी स्वामी होना चाहता ही नहीँ । होटल का वेटर भी कही और जाकर ऑर्डर को व्याकुल रहता है , वह वास्तविक सेवक नहीँ ।
अतः श्रवण का पायदान ही भक्ति में पार नही हो सकता है , आज व्यवस्था बदल गई है परन्तु कुछ समय पूर्व पाठशाला में अध्यापक से जो श्रद्धा विकसित होती वह जीवन भर रहती । अब तो छात्र अध्यापक से आंतरिक क्षोभ रखते है , अगर श्रद्धा रहे अपने विद्यालय में अपने अध्यापक के प्रति तो श्रवण भक्ति का स्वभाविक अभ्यास होगा और श्रद्धा से प्रत्येक शब्द जीवन बनाने वाला सिद्ध होगा , जहाँ शिक्षक में श्रद्धा वहाँ वह आध्यात्मिक गुरु का ही दर्शन करते है । ऐसे छात्र का जीवन सदा गहरा होता है क्योंकि प्रति पल जीवन भर वह प्राप्त ज्ञान और जीवन पथ को अपने अध्यापक से प्राप्त जानता है , स्वयं के सामर्थ्य से नहीँ । अहंकार के ना होने पर जीवन दिव्य वस्तु है क्योंकि वह अपने सामर्थ को नही । अपितु कृपा की सिद्धि करती है ।
श्रुति और स्मृति दोनों ही परम्पराएँ श्रवण आधारित रही है , आज शास्त्र और ग्रन्थ प्रकाशित है , पहले वह सन्त और गुरू जन में ही रहते और वाणी रूप प्रकट होते जिन्हें श्रवण की सिद्धि से ही सटीक ग्रहण किया जा सकता था । तब श्रवण गहरा था क्योंकि तब अगर कोई शब्द सुनने से चूक हो तो सारा श्लोकार्थ बदल जाता । अतः श्रवण ही पात्र रहा सदियों तक । आज पुस्तकें है , कोई वस्तु छुट गई पुनः - पुनः देख सकते है सो सटिकता नही रही , गहनता नही रही , मन का एक समय एक जगह होना नही रहा ।
शिशुत्व में प्रत्येक जीव श्रवण से ही सीखता है । शिशुत्व की श्रवणा विकसित क्योंकि वह सुनकर ही सीख रहा इसलिये नन्हा शिशु चीन में जन्म लें तो सहजता से वह कठिन भाषा सीख जाता है जो विद्वानों का विषय ।
श्रवण रहस्य पर आप भी चिंतन कीजिये । मेरा मानना श्रवण करना आ जावें तो ईश्वर से गहनतम और आंतरिक सम्बंध रहें ।
जिन्हें अपने इष्ट के अतिरिक्त अन्य कुछ सुनाई न आवें वह श्रवण भक्ति सोपान पर खड़े है । वहाँ नित्य भगवत् नाम ध्वनित होता है । मन्त्र सिद्धि पर स्वयं का ग्रहण मन्त्र ही नित्य भीतर सुनाई आने लगता है , यह अनन्यता से ही होगा । जिसे और भी कुछ इस समय भाने लगे तो नही होगा । जागृत नाम जहाँ कृपा से प्रकट हो जाता है वहाँ श्रवण शक्ति अन्य ध्वनि कैसे सुन सकती है ।
जो बहुत कुछ सुन ईश्वर के लिये क्या है वह चुन लेते है वह श्रवण भक्ति के उपासक है-साधक है
वास्तविक शरणागत , सम्पूर्णता से ईश्वर रूपी रस समुद्र में डूब गया अतः वह किस अधिकार से द्वितीय वस्तु की कल्पना भी कर सकता है । उसके कर्ण भी समर्पित और कर्ण शक्ति भी । अतः वह सर्व इंद्रिय से नित्य एक ही रस पी रहा । ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ईश्वर का भजन मन के निरोध से पूर्व असम्भव है , श्रवण कर्ण रूपी ज्ञानेन्द्रिय का भजन ।
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सत्यजीत "तृषित"

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