प्रेम में जो युगल में और भिन्न होकर सेवा परायण वृत्ति है वह सखी है , तृषित
प्रेम में जो युगल में और भिन्न होकर सेवा परायण वृत्ति है वह सखी है ।
जैसे जगत में भगवत् शक्तियाँ ही जीव में कार्यरत् है वैसे युगल में रसविस्तार हेतु शक्ति जो है वह सखी है , युगल से भिन्न नही है , उनमें है परन्तु भोग्य वृति नही सेवा वृत्ति ।
जहाँ जो झाँकी लेय तहाँ ह्वे दीखे संमुख ।
नागर परम बिचित्र देत सखियन सर्बस सुख ।
कोई भी सखी जहाँ कही भी इनकी जैसी झाँकी की भावना करती है , उसे वहाँ यें उसी रूप में दर्शन देते हैं । इस प्रकार परम् विचित्र नवल नागर श्री श्यामाश्याम सखियों को सदा सम्पूर्ण सुख प्रदान करते रहते हैं । (यह सम्पूर्ण सुख इस अर्थ में है कि इसे पाकर फिर किसी सुख की अभिलाषा शेष नही रहती । )
सखी का यह सम्पूर्ण सुख युगल का प्रेम ही है , युगल स्वरूप का सुख सखी का सुख है । युगल के सुख से जब तक सखी का सुख भिन्न है , वह राग पथ पर नहीँ । युगल सुख में निज सुख की पूर्ति ही सखी का पूर्ण सुख है । इस परम् सुख को पाकर सखी इससे बाहर नही आती , उसे यें ही सुख नित्य रूप से चाहिये ।
वास्तव में जीव का सत्य सुख और रस तो ईश्वर के ही रस में है । युगल की रस अवस्था परम् गोपन है , स्वहित भोगी कभी तत्सुख सुखित्वं में डूब युगल के सुख को अपना सुख मान लेता है तब वह भाव रूप सखी होता है । जिसमें परम् दिव्य नवल नागर के सुख वृद्धि अतिरिक्त कोई विकल्प शेष ही नही ।
स्व सुख हेतु भगवत् प्राप्ति तो असुरों को भी हुई है । केवल युगल से यह सम्बन्ध ही ऐसी भगवत् प्राप्ति देता है जिसमें उनका सुख है और उसमें अहम के अणु-अणु की निवृत्ति हो चुकी है , और अपने वास्तविक अहम अर्थात् श्यामाश्याम का दर्शन हो गया है ।
वहाँ अहम युगल अर्थ में है , गीता में भी बारबार अहम शब्द स्वयं हेतु प्रयोग कर सिद्ध किया ही उन्होंने कि अहम मैं हूँ जबकि हम अज्ञान वश पृथक् सत्ता को अहम जानते ।
पृथक् अहंकार है ही नही ।
कोई माटी का खिलौना बनाये और उसमें किसी तरह अपने प्राणों से प्राण भी डाले और माटी अपने को उस खिलाडी से पृथक् समझे वह ही अज्ञान है । उस खिलौने को जिसने बनाया उस हेतु उस अनुकूल ही खेल खेलना है ना कि रचियता से और और शक्ति आशा कर नव जगत बना लेना ।
प्रथम तो देहाध्यास हटे । और निज स्वरूप में तत्सुख की सिद्धि का बोध हो ।
स्वार्थ से ईश्वर से पृथकता ही होगी अब भावना में स्वार्थ जब तक है वह स्वभाविक स्वरूप और रस को प्रकट नही करेगा ।
पर सेवा से परम् सेवा विकसित हो सकती है , और भगवत् सेवा की पार्षद आदि समस्त स्थितियों से दिव्य अवस्था सखी है जिसे भगवत्सेवार्थ कृपा रूप पाया जा सकता है । यथार्थ भगवत्सेवा नित्य निकुँज सेवा है । जो जीवन रहते अनुभव हो सकती है ।
भीतर तत्सुखसुखित्वं नही तो यह पथ कितना ही रट लो , खुला नहीँ । और तत्सुख संतकृपा या सेवा अथवा भगवत्-विधान से ही प्राप्य है उसका कोई साधन नही , असाधन ही उसका साधन है । साधन युक्त स्वसुख ही सोचता है , चाहता है । साधन ना हो तो लगता है मेरे पास साधन होते तो दीन के लिये कुछ करता , कोड़ियो हेतु करता , गौ हेतु कुछ करता । साधन प्राप्त तो साधन पर निज अधिकार ही मानता है , वह प्राप्त साधन को "मेरा नहीँ है , सभी का है " यह नही मान पाता ।
"तृषित"
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