स्वार्थ सिद्धि भक्ति नही , तृषित

स्वार्थ सिद्धि कुछ भी हो वह भक्ति नही होती । भले भगवन प्रकट हो जावें तप या किसी भी साधन से पर प्रकट सकामता हेतु किये गए तो भक्ति नही हुई ।
भक्ति में भगवान को प्रकट होने के लिये कहना भी नही होता वह स्वयं वहाँ प्रेमातुर रहते है । भक्त-प्रेमी को आंशिक स्व हित नही केवल अपनत्व से अर्थ होता है , वहाँ कुछ लेन देन नही होती , वहाँ तो "श्री हरि" मेरे है और मैं सदा से उनका , उन हेतु यह भावना नित्य वृद्धित होती जाती है । "तृषित"

एक सेवक मानस भाव से श्री विग्रह दूर होने से मानस रूप ही हाथ श्री विग्रह के चरणों की और बढ़ा चरण स्पर्श कर मस्तक फिर हृदय फिर चरणों की और कई देर करते रहे ...

कई मैया मानस या दूर से श्री ठाकुर की आरती भावना कर उसे वारती है ।

बहुत सा जगत भगवत् सुमिरन करता है , अनेक कारणों से जैसे शांति-आनन्द प्राप्ति , कष्ट शमन , पुण्यार्जन , या कोई भी मनोरथ हेतु ।

... इन सब क्रियाओं में प्रीत नहीँ । स्व हित और तुष्टि-पुष्टि आदि ही यहाँ ।

भगवत् चरण मानस भाव में भगवत्प्रेमी भी छुते , पर आशीर्वाद लेने तक की भावना से नहीँ ... चरण सेवा भाव से । चरण दबाते । चरण का मानस स्पर्श ही किया और वह करते हुये भी स्वार्थ न गया तो वहाँ स्वभाविक स्वहित ही उदित होगा । चरण स्पर्श से श्री चरणन के ताप की निवृत्ति की भावना या चरण सेवा केवल प्रेमी सेवक विचारता है । मन जुड़ भी रहा है लग भी रहा है कि हम बड़े भक्त पर स्वहित हेतु , प्रीत न हुई ।

आरती तो सब अपने आरोग्य आदि भाव से ही लेते और करते , रसिक आरतियों अतिरिक्त प्रचलित आरती पद में भाव भी स्वलाभ के अनुरूप । ... रसिक और प्रेमियों द्वारा रचित आरती भावना में भगवत् आर्त की निवृत्ति की भावना होती है । सेवक सदा सेवक होता है , वह स्वामी को येनकेन प्रकारेण चाहता है , स्वामी को किसी परिवेश आदि से कष्ट न भी हो तो भी सेवक किसी तरह के कष्ट से स्वामी को दूर रखता है ।
कई महापुरुष स्वभाव से सरल रहे जिन्हें किसी व्यक्ति या परिस्थिति से परहेज नही उनके पट सदा खुले पर सेवक के हृदय में स्वामी का हित संगृहीत है और स्वामी सन्त या महापुरुष है तो उनके हृदय में जगत-हित , अतः ऐसे महापुरुष स्व कष्ट का विचार नही करते परन्तु सेवक वहाँ विचार करते है और एक व्यवस्था से अपने स्वामी से चर्चा आदि का समय और सीमा निर्धारण रखते है जिसमें स्वामी का आदेश नही पर आंतरिक सेवा उन्माद से ऐसा होता है ।
सेवा आदेश पर हो तो वह रस प्रदायक नही होगी , सेवा तो भावना से हो ।

हम नाम जप आदि भी करते है तो स्व पुष्टि या स्व लाभ ही हृदय में रहता है । प्रेमी स्व के सिद्धि के लिये नही अपितु स्व के त्याग के लिये भगवत् नाम लेते है ।
मैं तुम्हारा हो जाऊँ ... इस भाव से । अर्थात् स्वयं को अर्पण करते हुए ना कि कोई भुक्ति - मुक्ति लोभ से । हम अभिनय तो करते है परन्तु जिनका अभिनय कर रहे वैसा भाव नही कर पाते है , समर्पण नही कर पाते है ।
हम सांसरिक भोगी भक्ति का सुंदर अभिनय करते है । परन्तु भक्ति में स्व- अर्पण या समर्पण नही अपितु स्वहित ही विचारते है ।
वास्तविक स्वहित से भी हम अनभिज्ञ है , वास्तविक स्वहित तो हम नही हमारे हरि ही बेहतर समझते है अतः समर्पण हुये बिना वास्तविक हित भी उदित नही होता । हम जिसे स्व हित कहते है वह तो अज्ञान का परिणाम है , जिसे अविद्या या माया भी कह सकते है । हमारा हित श्री हरि से पृथकता और प्रियता से पूर्व दृश्य हो ही नही सकता , जगत में भोग करते रहना हमारा हित नहीँ । "तृषित" । प्रेम में सम्पूर्ण समर्पण प्रथम है अतः ज्ञानेन्द्रिय आदि भी स्वतः समर्पित है और इस समर्पण में ही वास्तविक भक्तिरस प्रकट होता है जब जीव का सम्बन्ध माटी की देह और माटी के जगत से छुट सच्चे संगी से हो जाता है और वह उनकी नाना सेवा लालसा से व्याकुल रहता है , इस समर्पण पर आगे फिर कभी ...

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