रसिक दर्शन नेत्र कृपा से रस दर्शन , तृषित
श्री हरिदास सरन जे आये ।
कुंजबिहारी ललित लाडिले अपने जानि निकट बैठाये ।
रसिक आश्रय , से रस उज्ज्वल होता जाता है । श्यामाश्याम रस , यह वृन्दावन रस , युगल प्रेम और ब्रज कुँजन की रसमयी लहरियाँ अति गहन रसावनि है । अति गहन । सामान्य दृष्टि से प्रकट नहीँ , अप्रकट । और रसिक अनन्य की दृष्टि से वह रस झाँकी हटती नही ।
प्राकृत चक्षु यह हमारे जड़ चक्षु वह झाँकी नहीँ देख पाते जो तत्क्षण उसी दिशा में रसिक सन्त निरन्तर निहारते है । अप्राकृत ब्रज नित्य लीला हेतु चक्षु भी वैसे हो , अप्राकृत । हमारे चक्षु प्राकृत , अर्थात् जड़ । स्व प्रकाशित नहीँ । इन जड़ चक्षुओं को रस पिपासा के अभाव में जड़ता ही दृश्य होगी ।
और जागृत नित्य रस आतुर , रस निहारण चक्षु से नित्य झाँकी प्रकट होगी । अप्राकृत रस की कुछ सौरभ ही प्राकृत तक आती है , कुछ लालसा में यह सौरभ , कुछ नित्य धाम में लीला ध्वनियाँ वहाँ लें जाने को आने लगती है परन्तु वह भी जब आती है जब पिपासा एक अनन्यता से एक ही दिशा में बहे ।
लौकिक जीवन में नाना छद्म और उतार-चढ़ाव है परन्तु नित्य रस में एक स्थिति । नित्य नव रंग में नित्य आनन्द ।
अप्राकृत दिव्य नित्य रसिक जगत में रस को क्षणिक प्रकट करते है रस स्पर्श से लालसा जागृति हेतु फिर अनन्य रस की प्राप्ति हेतु अर्थात् जगत को वास्तविक रस का दर्शन कराने हेतु प्रकट होते है , नित्य रसिक स्वरूप ।
जड़ तो उस चेतन को कैसे छुएगा जब चेतन तत्व भी छु नही पाते । जैसे देव-मुनि आदि । यह माधुर्य रस पिपासा अनन्य हो , और जिन्हें रस दर्शन प्राप्त उनकी कृपा से उनका दर्शन प्राप्त हो तब कुछ बात बने । स्व दृष्टि से लोक ही नही हटता , मृत्यु उपरान्त भी आत्म तत्व का बन्धन नही छूटता और वह जगत ही देखता या देखना चाहता तो जीवन रहते यह लौकिक जगत की अपेक्षा वास्तविक रस जगत (भावजगत) अगर उद्घाटित हो , माया के पर्दे हटे और दिख पड़े दो अनुपम लावण्य रस लालित्य में विदग्ध कोमलत्व का सार स्वरूप दिव्य अलौकिक परम् महा सौंदर्य कोटि चन्द्र राशियों से सजे हमारे "लाड़ली-लाल" ।
रसिक ही रस दृष्टि दे सकते है , क्योंकि यह वास्तविक विषय है कि अप्राकृत केलि को हम माया पाश से बंधे अन्धतम कूप में गिरे जीव नही देख सकते ।
सम्प्रदाय आदि का अर्थ है दर्शन । नित्य रस जिनका दर्शन उनके अनुगमन पूर्व वह प्रकट होता ही नहीँ , ऐसा आभास भी हो तब भी वह युगल और रसिक सन्त की ही कृपा ।
रसिक लोक नही नित्य रस निहारते अतः ऐसे पारसमणि के संग वह रस छु जाता फिर व्याकुलता की गति से रसवर्धन होने लगता है । परन्तु जड़ता का त्याग होता चेतन के स्पर्श से है और रसिक सन्त नित्य चेतन ही नही आह्लादित भी है ।
रसिक सन्त को रस प्रदान करने हेतु जड़ देह के संग की आवश्यकता भी नही वह चिन्मय देह को किसी तरह जागृत कर उसे भावातुर कर भावदेह में प्रकट कर सकते है । फिर भावदेह को जड़ सम्बन्ध से रूचि रहती नही वहाँ नित्य स्थिर रूप से युगल केलि प्रकट हो जाती ।
जिस वस्तु का अधिकारी जो है वही वितरण कर सकता है । रस का अधिकारी ही रस वितरण कर सकता है इससे रस वर्धन ही होता है ।
युगल दर्शन ही नही , युगल प्रकट संग भी देते है , सच्ची सेवातुरता से कोई भी ऐसा दर्शन प्राप्त कर सकता है जिस पर जगत कुछविश्वास कर भी अनुभूत नही कर सकता । वह दर्शन वृंद-रसिकों का निज धन है --
ऐसी गति ह्वै है कबहुँ, मुख निरखत नहीँ बैन ।
देखि-देखि वृन्दाविपिन, भरि-भरि ढारै नैन ।
यह नैन भी नित्य रसिक नैन है , रस दर्शन हेतु रसिक सन्त ही दर्शन की भावना और रूप की गाढ़ता और प्रकाश सब कृपावत देते है । जयजय श्यामाश्याम । -- "तृषित"
रस की गाढ़ता में युगल दर्शन में पृथ्क्य दर्शन नहीँ होता ।
स्यामास्याम संग ही नहीँ वरन् एक रूप ही अनुभूत होते है ।
रस आतुर एक श्री विग्रह और भावदर्शन में भी दोनों पाते है और निहारते है
गहनतम रसिक की और गहरी स्थिति है । वहाँ तो ...
Nice Collection of great thoughts.
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