सम्बन्ध जहाँ वह प्रिय और प्रिय का ही स्मरण , तृषित
हमारा सम्बन्ध कहाँ होता है जहाँ विश्वास हो । बिना विश्वास सम्बन्ध नहीं रहता है । जिससे सम्बन्ध हो वहीँ प्रिय होगा । पहले विश्वास हो फिर सम्बन्ध हो , जिससे सम्बन्ध है वह स्वतः प्रिय है और जो प्रिय है उन्हीं का स्मरण होता है । हम कहते है भगवान की याद नही आती , याद उसकी आएगी जो प्रिय होगा । भोग प्रिय है तो वही याद रहेंगे ।
जो प्रिय है उसका स्मरण है , और जिसका स्मरण चित् उसी का चिंतन करेगा । हमें भगवान प्रिय नही हो तो हम चिंतन का अभिनय करेगें स्वतः नही होगा , घण्टों माला लेकर घूमते रहेंगे चित् वही होगा जो प्रिय है । आज प्रदर्शनात्मक भक्ति का युग है । चलते फिरते जाप का अर्थ यह नही कि बैठ कर आसन पर करना मना ही है । जब बैठने का अवसर और समय हो तब भी टहलने आदि से चेतना दो जगह बहती है एक तो टहलने में और एक जप में , मन को नियंत्रित करना है , उसके अनुरूप नहीँ गमन करना है । हाँ आसन पर करने के उपरान्त सदा वाणी से भगवत् चिंतन होता रहे । करना न पड़े , होता रहे । संसार में हमें अपने किसी पारिवारिक व्यक्ति के शांत होने पर उनके न होने पर भुलाने का चिंतन करना होता है और वह भुलाने की अपेक्षा और गाढ़ता ले लेता है , वही व्यक्ति ही सोते-जागते- खाते-पीते समय आँखों के सामने रहता है । चित् उस मृत सम्बन्धी के चिंतन में स्वतः डूब जाता है , हमें सब आता है , बस हम भगवान के लिये अभिनय और संसार के लिये मन से वह सब करते है ।
... तो प्रिय जो हो उसी की स्मृति होती है और वही स्मृति पुनरावतन से चिंतन हो जाती है । चिंतनीय पदार्थ या व्यक्ति हमारे हृदय को द्रवीभूत कर उस पर छप जाते है । यह सब स्वभाविक होता है , प्रियता से नित्य स्मरण जैसे लम्बे समय घर से जाने पर कोई स्त्री स्वभाविक पति का स्मरण करें उसे स्मरण के लिये साधन की आवश्यकता नहीँ रहती कि वह माला लेकर पति के स्वरूप - नाम - गुण आदि का स्मरण फिर चिंतन करती हो । भगवान प्रिय नहीँ हमारे प्रियता जगत में है अतः मन को लगाने हेतु साधन है । भगवत् चिंतन हो जावें तब वह चिंतन ही ध्यान हो जाता है ।
ध्यान का अर्थ की चिंतनीय वस्तु ही ध्येय रह जावें , चिंतन होते-होते वही वस्तु या पदार्थ अन्तःकरण पर छप जाता है । भगवान के नाम-गुण-रूप के चिंतन से वहीँ के रह जाते है जिसे भीतर और बाहर नेत्र देखना चाहे , बाहर भिन्नता से भीतर चिंतन और गाढ़ता लेता है । ध्यान में चिंतनीय वस्तु में चित् स्वयं को विस्मरण कर ही देता है और इस तरह चिंतन से ध्यान और ध्यान से उसी में समाधि लग जाती है । चित् सभी उपाधियों से छुट एक प्रिय वस्तु में डूब जाता है जैसे समुद्र में जल की सत्ता में मिट्टी आदि भी जल में घुल मिल कर जल संग क्रियांवित हो लहरों में गमन करते है । मिट्टी और जल भिन्न होकर भी सम्बंधित हो प्रियता से अभिन्न हो जाते है जबकि तब भी रहते पृथक ही है जल मृदा नही हो सकता , मृदा जल नही हो सकती और यहीं व्याकुलता जल के रंग को मिट्टी के रंग में रंग देती है ।
प्रेमियों की समाधि चन्दन और पानी सी होती है जहाँ रसवर्धन दोनों और होता है , प्रभु जी तुम चन्दन मैं पानी ।
मिट्टी और जल वाले मिलन की तरह मिलकर भी पूर्ण रूप से एकत्व न होने से प्रेमी साधक बैचेन होता है । स्वरूपतः भिन्नता से मिट्टी का स्वरूप जल में घुल कर भी उसकी पृथक सत्ता अनुभूत करा देता है । जल तो रंग रूप सब बदल लेता है पर मिट्टी जब तक मिट्टी है तब तक जल नहीँ हो पाती । अतः अब यहाँ प्रेमी साधक समाधि पर भी बैचेन हो बीच का स्थूल देह रूपी देह भी गलित करने को बैचेन होते है और तब जाकर विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति होती है । जड़ से आंतरिक सम्बन्ध छुट जाता है और नित्य चेतन में पूर्ण समावेश हो जाता है ।
जैसे मिट्टी अपना गुण भूल जल के संग से मूर्त हो जाती है , बिखरना -उड़ना आदि छुट जाता है । जल संग नहीँ होता परन्तु जल के संग की अभिव्यक्ति से मिट्टी का गुण बदल जाता है और वह थिर हो जाती है , बाहरी थिरता के पीछे सदा भीतर का रस प्रवाह होता है । अपने स्वरूप और गुण की विस्मृति से वह मिट्टी भी प्रति अणु भिन्न क्रिया उपादान को त्याग एक हो स्वयं में जलत्व को तलाशती एक हो जाती है , स्वभाव से रज का प्रत्येक अणु अलग होता ही है न परन्तु यहां वह जल के प्रभाव से अपने स्वरूप को भूल जल के मिलन से दिए स्वरूप में स्थिर हो जाती है । मन भी ऐसे अनेकों धाराओं में बहता है , वह भी जब सिमट कर भगवत् अनुराग रूपी गोंद से भगवान के चरणारविन्द में समा जावें तब वह निर्मल प्रीत को अनुभूत करता है जहाँ वह भगवत् सत्ता से स्वयं को उसी में उनके ही प्रकाश और रस से स्वयं उन्हीं की वस्तु पाता है और अभिन्न भी पाता है , दोनों सम्भव है अभिन्नता में अद्वैत और भगवत् वस्तु रूप भिन्नता में द्वेत है । दोनों ही रसवर्धक है , यथा भावना दोनों प्रकट हो सकते है । सत्यजीत
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