भाव वार्ता 12 अक्टूबर 2016

[10/12, 10:51 AM] सत्यजीत तृषित: अजरत्व की जागृति हेतु , श्यामाश्याम की अप्राकृत सेवा को भीतर विकसित कीजिये ।
उनकी चेतनता को अणु अणु में अनुभूत कीजिये ।
उससे चेतन पर ही निगाह टिकेगी । सारा जगत चिन्मय हो जाएगा । दिव्य । अप्राकृत । बस उन्हें जड़ नही चेतन मानते ही । हम उन्हें जड़ मानते है , जो चेतन मानेगा उसके संग सदा है । जो जड़ मानेगा उसके लिये वह कोई धातु आदि में ही । प्रत्यक्ष नही । दर्शन नही , मिलन की व्याकुलता हो । नेत्र बन्द नही , नेत्र खुले हो । प्रणाम नही , मूर्छा हो यह सब जब होगा जब मन मान लें यह सत्य है , मूर्त नही है , जागृत है । यह सब जगत समक्ष हुआ भी नही तो इन सब स्थितियों में ही गहन रस होगा । प्रेम में मूर्छित होने से कठिन है मूर्छा को रोकना । वह और अधिक रसमय व्याकुलता देती है । और व्याकुलता जब तक बढ़ रही हो मान लो खेंच रहे है , हम छुट नही रहे । यह व्याकुलता वैसी है जैसे लोहे को होती चूम्बक संग । इस व्याकुलता में भी हमारा कमाल नही । व्याकुलता न हो तो मानिये अब नही खेंच रहे । जब कुछ भी भाने लगेगा , व्याकुलता कम होगी । जब कुछ न भायेगा बढ़ेगी । क्योंकि यही उनका सूत्र है । उनके अतिरिक्त जो भी पिपासा है वह पहले मिटेगी । और किसी भी पिपासा में वैसी व्याकुलता नही , कोई वस्तु इस प्रेम डोर से नही खेंचति । जैसे वें ।
[10/12, 10:51 AM] सत्यजीत तृषित: एक बात और उनके समक्ष प्रेमी सिद्ध नही हुआ जा सकता ।
कभी भी नही । क्योंकि उनके समक्ष प्रेम की सिद्धि में भी उनका प्रेम है ।
हम इतने भजन भाव लिखते , कभी उनका लिखा भजन भाव भीतर या कही मिला , वह सुनते । हम प्रेमी क्योंकि वह हमारी प्रेम वृत्ति को देख रहे । अगर वह प्रेम प्रकट करें तो हम नंगी आँखों से उनकी हरकतें न देख सकेंगे । उनकी वाणी , उनकी सौन्दर्यता को देख अभिव्यक्त हो इसका कारण उनका प्रेम । प्रेम प्रेमी को अवसर देता है ।
जैसे पत्नी कहती है बारबार जो आप चाहें , जो आपको प्रिय ।
ऐसा ही वह कहते as you wish .
और इसे जो जीवन मान लें प्रेम में ।वह प्रेमी ।
हमारे मन की होती यह उनका प्रेम । उनके मन की हो तब हमारा प्रेम ।
अगर हमारा मन उनके चरण छूने को तो यह सच्चा नही , हमारा मन नही हो क्योंकि योग्यता नही , फिर उनका मन हो हम उन्हें छुये तब उनके मन के लिये छुना यह प्रेम । उनकी सेवा भी हो तो उनके मन में है सो । अपने मन की कोई बात न हो । कोई भी । भगवत्प्राप्ति भी नही । भगवत्प्राप्ति के लिये मन व्याकुल हो तब उसे रोकिये वह उस मन की चेतना के होने का कारण है । भगवत्प्राप्ति नही भगवत्सेवा हो वह भी उनका मन हो तब । न हो तो द्वार पर । कोने में पड़े रहो उनके । उन्हें देखो भी तब जब उन्हें उससे सुख हो । न हो तो मत देखो । उनके सुख की फुलवारी बनाते बनाते कभी मन में निर्मल प्रेम का एक अणु होगा जब उनके किसी सुख की सिद्धि होगी ।
बस अपना सुख  , स्वार्थ ही जड़ता है । मैं होना चाहे यही जड़ता । तुम हो बस तुम , तुम्हारे हेतु मैं किसी सेवा रूप में यह प्रियता ।
[10/12, 10:51 AM] सत्यजीत तृषित: बूँद को अपनी सागर से अभिन्नता का पता चल जावें बस । सागर खेंच लेगा । कही पड़ी हो । सागर को पता चल जावें वह अब और पृथक् नही रह सकती , खेंच लेगा ।
जल का अणु अणु वही गिरता जहाँ से अवशोषित हुआ ।
आज जहाँ रेत कल सागर था , अब रेत पर गिरती हर बूँद वहीँ जो कभी वहाँ सागर में थी ।
[10/12, 11:41 AM] सत्यजीत तृषित: बिना नहाये धोये तो हम जगत में नही किसी से मिलते ।
किसी vip से मिलने पर स्पेशल खर्च कर कपड़े आदि लाते ।
किसी से मिलने को कई इंटरव्यू देने होते । कई तरह की चैकिंग होती हमारी ।
बच्चे से मिले तो बच्चा होना । जितना छोटा बच्चा वैसे हम हो जाते । स्ट्रेस संग बच्चों संग नही मिल सकते ।
बन्दर को भगाने में कई लोग खुद उसकी तरह हो जाते है ।
तो सामने जो हो वैसे हम ।
जिससे मिलना हो उसके अनुरूप ।

अब भगवत् मिलन हो तो हमारी कोई तैयारी नही ,
हम जैसे मैले है वैसे मिलना चाहते । मैले भी मिलने जावें तो क्या उनके समक्ष कोई मैल टिकेगा ।
अमिताभ बच्चन से मिलकर बिजन्स और राजनीति की बात नहीँ उन्हीं की कला और कला क्षेत्र की बात स्वतः होगी ।
तो श्यामसुन्दर से हम लौकिक बात क्यों करना चाहते ।
और जगत के मेल मिलापों हेतु हम बहुत व्याकुल ?
भगवत् मिलन हेतु क्यों नही ?
आप डॉक्टर से मिलते हो तो या तो डॉक्टर हो कर मिलो कि कोई बातें हो या रोगी होकर ।
भगवत् मिलन की ज्वाला जहाँ लग गई , जो सर्व रूप मिलन को व्याकुल वह फिर आंतरिक और बाह्य दोनों और से स्वतः वैसा हो कि मिल सकें इसलिये तपने लगेगा ।
विरह - बोध किसी भी सूत्र से उसके भीतर का मल हट जाएगा । जब तक उनके समक्ष पहुँचेगा वह कमल सा होगा । कुंदन सा ।
कीचड़ में से भी सौंदर्य को अवशोषित कर कमल खिलता है । और सोने को भी तपा कर कुंदन बनता है । ताप का महत्व है ।
अतः भगवत् पथिक को प्राप्त प्रत्येक परिस्थिति उस मिलन की रुपरेखा हेतु है । मिलन गहरा हो ।
राम से मिलन हो तो राम भरे हो रोम रोम में । जब तक भगवतपथिक अपने रोम रोम , अणु अणु , जीवन के पल पल को केवल भगवत् वस्तु नही जानता वह निर्मल नही हो पाता । जो निर्मल है वही भगवतवस्तु है । मल रहित । मैं रूपी मलिनता छुट जावें ।
भजन हो सारा दिन रात , और भजन का अहम हो जावें । भजन पद की रचना , उनके गान में अपनी अहंता प्रकट हो जावें तो यह तो अहम रूपी नाग की वह गाँठ है जो उसे दिखेगी ही नही ।
सेवा में जिस हेतु सेवा है उसके अनुरूप गुण विकसित होते है , जैसे शिशु की मालिश में हाथ स्वतः कोमलता से स्पर्श करेगा । सेवक का अपने सेव्य आराध्य हेतु पहुँचने का एक ही विकल्प है "सेवा" ।
सेवा रूप वह स्वयं को वहाँ पाता है जैसे पुष्प की माला बना भगवत् हार रूप धारण कराने पर अनुभूत होगा जैसे स्वयं को ही पुष्प रूप हमने भगवत् आभूषण बनाया हो । सेवक उस हार के भगवत् स्पर्श से स्वयं का स्पर्श प्राप्त करेगा । अतः वहाँ वह सम्पूर्ण समर्पण से की सेवा से सेवा में ही बदल गया है । सेवक - सेवा - फिर सेव्य में बदल जाता है ।
वही हार उसी सेवक या अन्य प्रेमी को दी जावे वहाँ भगवत् वस्तु में भगवत् भावना ही होगी । जैसे भगवान ही मिल गए हो , उनके स्पर्श से वस्तु में दिव्यता प्रतीत होती है तो जीवन उन्हें स्पर्श कर जावें तब क्या कमाल घटेगा ।
पूर्ण का मिलन पूर्णता से ही होता है , जातीय एकता ही मिलन कराती है । तो भगवत् रस के विकास में भगवत् प्रेमी में भी भगवत् स्पर्श हेतु भगवत् भूमि भी विकसित होती है । प्रियता और प्रेम । रस और आनन्द । दैन्य और करुणा । सेवक और स्वामी । का ही मिलन होता है ।
सामान्य लौकिक कुलीन परिवार के सेवक होने हेतु कई योग्यता चाहिये । भगवत् धाम में पार्षद (सेवक) होने हेतु जो भी आवश्यकता है वह प्राप्त है , उन भावनाओं से मल हटाने पर वह निर्मल मन हो जाती है जिसे विशुद्ध सत्व भी कह सकते है या भावदेह भी । महाभाव में डूबे रसराज से भावदेह का ही मिलन वास्तविक मिलन है जिसे पूर्ण का पूर्ण दर्शन होता है ।
[10/12, 12:04 PM] सत्यजीत तृषित: काल से परे महाकाल के चरणों में
त्रिगुण से परे त्रिपुर सुंदरी के चरणों में वन्दन कि

कालातीत नित्य निर्गुण भाव राज्य की प्राप्ति हेतु काल और गुण पाश से आप ही मुक्त करें और नित्य चिन्मय धाम प्रेम रस धरा श्री वृन्दावन की सेवा में कोई कीट पतंग ही बना देवें । जड़ मानवता से , भाव चेतन का कीट-पतंग , लता-गुल्म अधिक श्रेष्ठ है ।

बाहर से स्पर्श में बाह्य शक्ति और भीतर से स्पर्श में आंतरिक शक्ति कार्यरत है । ईश्वर का आंतरिक स्पर्श उनकी आंतरिक शक्ति से ही सम्भव । किसी के हृदय को तब ही छुआ जा सकता है जब वह चाहें ।
भावजगत उनका आंतरिक स्वरूप है । उनके भीतर उतर जाने हेतु एक विकल्प है , मन माखन हो जावें और वह उसे पा लें ।

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