रस जड़ 1 , तृषित

विटप-वल्लरियों में सरस् रस विस्तारक पक्षी गण राग-रागिनियों को श्रद्धेय पी रहे है । समूचा परिसर रात्रि को पकड़ने को आतुर हो । शब्द शून्यता ऐसी कि ... रस बाँवरे प्रियालाल की झनक और खनक स्पष्ट सरस् बह रही । मयूर समूह हो या सरोवर में निकुंज श्रवण सुनते राजहंस समूह सभी जैसे चित्रवत हो गए हो । यह सम्पूर्ण परिसर ... रात्रि विस्तार की वंदना में सहज ही डूबा हुआ । यहाँ रात्रि निद्रा नहीँ ... जागृति प्रदान करती है । हिरणियों के नयन मुदित होने पर सजल धारा बहा रहे है । जैसे वृंदा रानी के यह सरस् परिकर एक अटल साधना कर रहे हो । परिणामतः वह महारात्रि अपरिमित है । नित्य विहार आकांशी कुमुद भी चन्द्र रश्मि में ही सरस् रस वितरण करते है । हे शशि !! सरसता तो जब है , जब तू थिर हो जाएं , यह रात्रि मेरे प्राणों का श्रृंगार कर रही है ... इस रात्रि का विराम नहीँ । यह अनन्त काल रस विकसन करती ब्रह्म को रसभुत कर रस प्रदायिनी महारात्रि है । इस महामिलन का अन्यत्र कोई क्षितिज नहीँ । नित्य विहार पथिक क्या मन को अदृश्य रस सिन्धु में तत्सुखार्थ रात्रि को महारात्रि वत अर्पण करने को व्याकुल भाव से प्राणों के स्पंदन को रोके हुए दो सूकोमल रस पुष्पों के रसवर्धनार्थ सत्य में समर्पित हो सकेंगे । हे चेतन ... क्या तू चेतना सँग जड़ हो सकेगा ... हे जड़ क्या तू तत्सुखार्थ सरस् सचेतन उन्हें अनुभूत हो सकेगा ... क्या तू सरस् भाव रस में उतर स्वभाव को पियेगा । अथवा मृदुल कर कमलों में यंत्रवत हो उस सुमधुर स्पर्श सुख को पाकर स्वयं को जड़ सिद्ध करने में कारगर होगा । क्योंकि आभूषण - वसन - पात्र आदि रूप सरस् स्पर्श सुख को तूने पी ही लिया तो वहाँ उस पदार्थ से उन्हें तत्क्षण तृप्ति कैसे होगी ??? कलम बाँवरी हो गई छुअन से तो करावली की भावना को लिपिबद्ध-चित्रवत कैसे कर सकेगी ? चेतन होकर जड़ । रसजड़ । श्री वृन्दावन । तृषित । जयजयश्यामाश्याम ।

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