पुष्प समेटे पाषाण , तृषित

पाषाण । ... प्रेमी पाषाण से पुष्प तक कुछ भी एक साथ जी लेता है । प्रेमी पुष्प को समेटे स्वयं को पाषाण सिद्ध करता एक कवच है ।
संसार प्रेमी खोज रहा है ... और संसार में प्रेमी ही कठिन ... नहीँ मिलते क्यों ? क्योंकि प्रेम जीवन्त है ... प्रेम समर्पण का परिणाम है ... सागर में डूबने को व्याकुल मछली सागर से कभी मिलकर भी मुलाकात नहीँ कर पाती । ... प्रेमी तक आत्म विसर्जित पहुंचता है । अहंकार साहिल से सागर की वह वाही कर लौट जाता है । प्रेमी को छू कर कोई लौट नहीँ सकता वहाँ फिर आप नेत्रों अपने प्रेमी को ही हृदय में भर कर बाहर से लौटते हो पूर्णता के पान पर अपूर्णत्व की सत्ता मिथ्या हो जाती है । 
प्रेम प्राप्ति बाद अपूर्णत्व कुछ नही । प्रेम रस से परे ही अपूर्णता है । ... मोक्ष में भी हृदय रूपी थकान जाती नहीँ ... और प्रेम तो हृदय का विश्राम है । ... अपना हृदय चरणारविन्द अर्पण जो हो जाता है । तो वहाँ वह विश्राम पा ही गया । प्रेम से पहले हृदय स्वर्ग क्या वैकुंठ तक अतृप्त है । वैकुंठ से पार्षद असुरत्व में जा सकते है । परन्तु प्रेम हृदय फिर कभी अकल्याणत्व को प्राप्त नही होता।  जो समर्पित हो गया ... वह ही वास्तविक जीवन का सिद्ध है ... जिसे हम कहते पागल ... दीवानी ! ... और प्रेम पथिक कहते है ... प्रेमी।  रसिक । ... - तृषित

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