सम्पूर्ण भुवनों में दृष्टि प्राप्त के नेत्रों कहां विश्राम मिल सकता है ... ???
सम्पूर्ण भुवनों में दृष्टि प्राप्त के नेत्रों कहां विश्राम मिल सकता है ... ???
मधुर मन्द श्री श्यामसुन्दर के हास्य पर । हास्य यहाँ हास्य का हार ही । एक हास्य नहीँ जैसे हास्य की माला ही हो इनकी सहज मुस्कान पर ।
हम विकारित , पीड़ित , कठोर दृष्टि वाले , भव सागर के सन्ताप को भूल जाते है क्षणार्द्ध में श्री प्रभु के हास्य का दर्शन कर ।
सन्ताप निवृत्ति का कितना सहज उपाय है ... अपार पीड़ित जहां श्री प्रभु के श्री विग्रह की मुस्कान में अपनी पीड़ा को भूल जाता है ... वहां विशुद्ध चित्त में प्रकट दिव्य अति दिव्य श्री प्रभु के स्वरूप के पुलकित अधर दर्शन से क्या भव रोग पुनः लग सकता है ... ???
श्री प्रभु के एक रोम कूप की शोभा सौंदर्य अणु से सम्पूर्ण ब्रमांडो में सौंदर्य बिखरा है ... एक अणु से । प्राकृत कोई उपमा तो एक रोम कूप तक कल्पना नहीँ कर सकती , फिर विशुद्ध चित्त में प्रकट श्री स्वरूप की सहज सौंदर्य प्रभा ... अहा श्री प्रभु के दर्शन उपरान्त कैसे द्रष्टा भाव भी रह सकता है ... देखने वाला तो पूर्णतः डूब ही गया ।
नेत्रों को युगों से जिस सुधा का पान करना था उनका साफल्य सिद्ध होने तो श्री प्रभु मुखारविन्द पर अटक जाने पर है ।
यह श्यामघन सौ करोड़ गुणित श्यामल राशि रूप श्री प्रभु के ललाट पर कस्तूरी और चंदन ऐसे मिले हुए है । जैसे इस श्याम मेघ में जो विद्युत तरंगें थी वह थिर गई । स्थिर हो गई । ललाट पर दो लकीर रूप में ...
ऐसा स्वरूप जहां अलकावली जब लहराती अधरों तक आती तो श्यामल नीलिमा से अधरों की अरुणिमा से अरुणिम हो उठती ।
अरुणिम अधर सार केंद्र है सोर्न्दर्य सुधा का ... सुकोमल अरुणिम अधरों की अरुणिमा दन्त पंक्तियों पर गिरती है ... दन्त पंक्ति अर्थात कोटि गुणित मुक्तावलि में स्फटिक के कोटि गुणित सार तत्व को छान कर सौ बार छान जाए ऐसी दीप्ती दन्त पंक्तियों की ...
स्फटिक पर अरुणिम पुष्प से स्फटिक में अरुणिम प्रभा छलक पड़ती हो ऐसा यह मुक्तावली अधर दल द्वय सँग अरुणिम रँगित हो रही है । और अधरदल दन्तपंक्ति सँग से स्फटिक प्रभा से अपार अकल्पनीय प्रभाओं से चमक रहे है ।
कामाग्नि में सन्तप्त हम भोगियों को श्री स्वरूप के श्रंगार और सौंदर्य का दर्शन मनन करना चाहिये । और यह स्वरूप किसी उपमा से सहज प्रकाशित नहीँ है ... उपमाएँ तो मन को एक आभास देने मात्र के लिये है । चन्द्र से इनकी उपमा है ... परन्तु एक चन्द्र से नहीँ कोटि गुणित चंद्र राशि का सरोवर ... जी, ऐसा सरोवर जिसमें जल का अणु-अणु स्वयं चन्द्र ही हो ऐसे चन्द्र सरोवर के सार को सौ बार छानने पर जो ज्योत्स्ना प्राप्त हो वह अकथनीय ज्योत्स्ना श्री चन्द्र मुखारविन्द से सहज बरसती रहती है । प्राकृत भव में क्या है जो उन्हें प्रकट कर सकें ... जहाँ भी सौंदर्य की परिधि आप हम पाते उसके सौ करोड़ गुणित सार तत्व से सहज झरित यह श्री स्वरूप है ।
शेष किशोरी तेरे चरणन की रज उत्सव में श्री किशोरी सुखार्थ । उनके अतिरिक्त कौन है जो सहजता से श्रीस्वरूप के मंगल स्वरूप का अनवरत पान कर भी उनके मंगल स्वरूप की बातों को अति सहजता से सुन कर पी सकें , हे किशोरी ... तृषित ।
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