भजन की सरसता का वर्धन , तृषित

भजन की सरसता का वर्धन

नाम भजन (सुमिरन) गहनतम अमृत है , भजन में स्थायी रसभाव वृद्धि होती है । भजन से स्वभाव स्वरूप का अनुभव होता है । भजन हमें अपनी वास्तविक स्थिति प्रदान करता है । एक ही नाम से सभी को भिन्न सेवात्मक आस्वादन प्राप्त हुआ करते है । अतः नाम को साधना नहीं , नाम को जीवन निधि वत ग्रहण करना चाहिए । श्रीनाम में सभी रस है और श्रीनाम ही आस्वादन की क्षमता देते है । पात्र का निर्मलीकरण भी नाम से होता जाता है ।
नाम मे से अहंकार हटा कर फिर मनन करना चाहिए जो नाम मैं पुकारूँ वह सरस् और कोमल न होगा , अपितु रसिक अवस्था वही नाम पुकारे , रसिक वाणी से श्रवनित नाम अपने अन्तः पटल पर रखिये । जैसे महामन्त्र पुकारना है तो चिन्तन कीजिये रूप गोस्वामी पाद की पुकार । जैसे गिरधर पुकारना है तो सुनिये हिय पर जैसे मीरा बाईं सां पुकार रही हो । रसिक आश्रय प्रति नाम रहेगा तो मीठा स्वाद देगा , अपने हमें श्रीनाम में आत्मीयता नहीं रहती  अतः रसिक आश्रय से पुकारिये । स्मरण रखिये श्री गुरु की वह ध्वनि जिस समय नाम कृपा प्रकट हुई । जीवन मे वर्तमान साधक को भजन की शुरुआत में नाम में लगता इसमें विशेष क्या ?? वर्तमान जीव बहुत आधुनिक है उसे बटन दबाने से पहले परिणाम चाहिए । सन्तोष और धैर्य का अभाव है अर्थात भगवत्कृपा का अनादर ही भीतर है । अपने भजन परायण रहते हुए श्रीभजन जो कृपा करते है वह कृपा जीवगत लालसा से सदा अपरिमित सुधा वर्षा रूप होती है । श्रीनाम की सहज नित्यता से वही नाम प्रति नाम कुछ वर्षों में इतना गहन हो जाता कि अहा । तब नामजप (प्रयास)- नामरस (स्वभाविक रस) और फिर नामसेवा (नाम मे विराजित श्री नाम धारक नामी की सेवा) प्रकट रहती है ।
सामान्यतः लोग कहते है आज कोई माला 20 मिनट में हो तो कभी 2 मिनट में होगी । यह तो निवृत्ति हो गई भजन की । तय कीजिये किप्रति नाम हमें डूबना है या छूटना है । वास्तविक भजन बनने पर वह अति मधुर हो जाता है । अर्थात श्रीनाम आश्रय कालशून्य स्थिति है । प्रति नाम का अपना विश्राम है , और वह विश्राम ही रस है । बाहर नाम की यह स्थिति क्षणिक होने पर भी भीतर जीवनवत गहन हो सकती है और बाहर यह स्थिति बहुत विस्तृत काल की होकर भीतर क्षणिक भी हो सकती है ।
वास्तविकता में रसिक का एक श्रीनाम माला ही सटीक होती है , गहन , सम्पूर्ण एक-एक नाम मे निजता -समीपता और अभिन्नता सघन होती है । सामीप्य में होने वाली स्थिति प्रकट रहती है , श्रीनाम से आश्रय हृदय पर ज्यों-ज्यों आभासित होते है त्यों-त्यों उनकी दिव्यताओं में जीवत्व भँग हो नित्यसेवक तत्त्व प्रकट होकर अनुभूत करता है अपने प्राणाधार को । अतः हो सकता है प्रति नाम स्थिति गम्भीर होती जावे , बाहरी रूप वहाँ पहले जो 2 मिनट में होती वही नाम से आत्मियता के बढ़ते जाने से 20 मिनट और कभी 2 घण्टे भी लग जावे । प्रति नाम आगे बढ़ना असहज सा हो , मूर्छा सी बनती हो । रसिक कहते है न भजन नही बनता यह उनकी भजन से आत्मीयता बढ़ने से होता है , स्थाई संख्या पूर्ण करना तब बढा साहसिक हो जाता है , प्रति नाम मे मधुता प्रकट होने पर उसे लाँघ कर भजन परायण रहना यह भी मधुता का एक विपरीत रति से आस्वादन है । यहाँ नाम की प्रधानता होती है , नाम द्वारा प्रदत्त स्वाद भी गौण हो जाता है ...यह ही विकास भजन का । प्रति नाम की मधुता की सुधा में डुबकी लगाकर आगे बढ़ना भी एक प्रक्रिया ही है । जैसे गिर्राज जी की परिक्रमा कोई अति शीघ्र निपटा लें भले मार्ग में कितनी ही मधुता प्रकट हो । वहीं कोई रसिक उस एक परिक्रमा को जीवन बना लें जैसे राधाकुण्ड आ जावें तो वही वह आस्वादन में डूब जावें । फिर कभी स्मृत होवें अग्रिम पड़ाव तब वह वास हो जावें इस तरह एक परिक्रमा ही सघन रसवती है , प्रति पड़ाव मधुर ही है और परिणिति भी मधुरतम है । लक्ष्य होवें कि यह मधुता की सेवा से हमें अवकाश ही ना मिलें जीवन पर्यन्त ... यह प्रेम पथ है ... भाव वृद्धि होती ही रहती यहाँ , साधक की अपनी स्वभाविक स्थिति से ।
काल का चिंतन मधुता के आश्रय से छूट जाना चाहिए ।  काल का बन्धन ही मैं हानि मानता हूँ , मधुता को छूने में । श्री भगवत नाम प्राणों से प्रिय है नही होता आज , बस केवल कामनाओं की सिद्धि का विकल्प माना जाता है , नाम ही स्वयं रस है ...नाम ही करुणतम कृपा है । नाम ही निकटतम सँग है श्रीहरि का अतः श्रीनाम हृदयस्थ वासित होता जाये ... नित्य हो ... नित्य नव अनुभूति और रस की झंकार दे श्रीनाम । नाम से सर्व सिद्धता नित्य नवीन होकर प्राप्त होती है । सिद्ध वह है जिन्हें नाम से सिद्धि रूप केवल नित्य नामाश्रय ही प्राप्त हो जावें ।  रसिक कृपा बहुत दिव्य है , मेरे सद्गुरु वर जु ने जो नाम पुकार मुझे दिया , वह इतनी  गहनता से मै जीवन में कभी किसी से नही कह सकता । हाँ कभी भजन में मेरा भाव क्षणार्द्ध गहन हुआ तो अवश्य सद्गुरु ने पूर्व में वो सभी स्वाद  चखें ही है । उनका स्वाद छु लेना उनका ही अनुग्रह होगा ,  श्रीगुरु सदा गुरु ही है । उन्हें कदापि उलाँघना असम्भव है । अतः समस्त प्राणों से नव साधको को श्रीनाम प्राप्ति में अपने गुरू वर की नाम प्रियता में डुबकी लगानी चाहिये । भजन संख्यावाची ना हो , अनवरत हो , अनन्य हो , आत्मवत हो । उसकी अनुभूति ,  नित्य नवीन और अनवरत हो । ऐसा श्रीनाम कृपा सँग  और... और... और... महकेगा ही । अगर सटीक हो सरुचि । नित्य लगेगा आज से पहले इतना भाव न हो पाया था , आप स्वयं अपने ही भजन को नकारते जाएंगे कि बन नही पा रहा भजन । भजन में मन जब नहीं लगता जब मन को कोई दूसरी वस्तु चाहिये हो , मन को केवल नामाश्रय चाहिए ट्यो नाम आश्रय मिलते ही क्षणार्द्ध में चेतना की सम्पूर्ण व्याकुलता भीग जावेगी । कभी जाडे में गंगा स्नान कीजिये और कहिये शीतलता न हुई । वैसे ही नामाश्रित अगर सत्य में नामी को श्रीनाम में अभिन्न मान छु जावे तब क्या वह शीतल न होगा । वह मधुतम-शीतलता इतनी सघन होगी कि यह मन नामक वस्तु उससे छूटते ही छटपटाने लगेगी । आपके मन को जो अनन्त रससुधा चाहिये वह उसे श्रीनामाश्रय में ही मिलेगी ।
नाम में अति माधुर्य स्वरूप स्वयं विराजमान है ,वह  सरसता , सौरभता  सम्पूर्ण प्रकट है अनुभव होगा भजन परायण होकर नाम मे डूबते जाने से और यह डुबकी अनन्त गहन है , अनन्त जीवन मे श्रीनाम की महिमा और स्वाद को नापा नहीं जा सकता । नाम प्राप्त अगर अन्य रूप कृपा कृपा का आलाप चाह्वे तो यह श्रीनाम आश्रय का अनादर है । वही प्यारे प्रियतम उस नाम में महकते है नित्य ही नवीन और नवीन होकर ..और ...और ....और ...अनिवर्चनीय मधुता दाता है श्रीनाम ।
ऐसा भजन हो कि कभी नाम में अति प्रियता आत्मियता होती थी अब नीरसता हो रही , ऐसा लक्ष्य का भँग होने से होता है , बन नही पा रही मधुता नाम मे तब ऐसे साधकों को सावधान होना चाहिये । श्रीनाम नित्य-नवनव प्राण हो । नव प्रियतम का नव सौंदर्य उसमें विराजमान होता रहें । नव-नव ललित-केलित-मधुरित-हिततम लीला-लहरियाँ श्रीनामाश्रय में ही पुलकती रह्वे , फूलती रह्वे , लहर दर नव लहर की ललित उछाल है श्रीनाम की डुबकी  ।
जैसे 8 घण्टे हम सोते , 15 मिनट भजन कर पाते तो अभी तो निद्रा का पलड़ा भारी । भजन प्रिय कहा हुआ ... नाम में इतना रस है कि भजन में से उठने का मन न हो । और पुनः नाम शरण की भावना व्याकुलता हो सताती रहे । भजन से रस भाव आनन्द का गहन संचय कीजिये और वहीं मधुता उन्हें देते रहिये , भजन का स्वाद ही सेवा हो सकता है । भजन परायण होकर जीवनरस देना रसिकवर जु को यही जागृत प्रेमस्थिति है । जो प्रीति आप या हम दे सकते कभी उन्हें , वह वही देते है भजनकाल में रसभुत होकर । जैसे दूध गौ में  स्वयं ही है । पर गौ को दूह कर पुनः वह पिलाये तब उसकी तृप्ति होती है । वैसे ही रस भक्ति भाव स्व हेतु है ही नहीँ , रस के लिये यात्रा हो मिले वह पर यही घनीभूत सार रस उन्हें पुष्ट करेगा । है उनका पर दोहन कर उन्हें ही निवेदन भी हो , सेवन वही करें । गौ को दूध पान कराने की मति जिसमे कभी हुई हो वह सहज पथिक । नित्य वर्द्धन से पुलकते श्री प्रियाप्रियतम का मुखारबिन्द । । श्री हरिदास । तृषित । जयजय श्यामाश्याम जी । श्रीहरि और श्रीहरिदास कृपा कर भजन परायण रहने का इस किंकर दीन को आशीष दीजिये ।

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