बहुत कोमल वह सो शहद गिरे हमारी आँखों से , तृषित
जी । उन्हें पीड़ा न हो । यही सहज स्वरूप । उन्हें तनिक कष्ट न हो । अति कोमल । और सहज भी तो ... । जो जहां जब जैसे निरखे वह वहाँ वैसे ही तब प्रकट । अब निरखने वाले के गुलाब सी कोमल निगाहें हो ।
शहद सा मधुर अंग प्रत्यंग हो । माखन से कोमल हृदय हो । कोमल को कोमल ही छु सकता है ... पी सकता है ... अनुभूत कर सकता है ।
गुलाब झरते जिनकी वाणी से ... रस ही टपकता हो । नेत्र नही हमारे पास कोमल । क्योंकि उन्हें यह लोक रंजक चक्षु तो पीड़ा ही देते है । सरस् नेत्र नहीँ हमारे कि कोई फूल इन नेत्रों को देख ठहर जाएं ... कवि यूँ ही नहीँ कहते कि प्रियालाल के अधर पर भृमर गुँजार करते है । चलते फिरते सुकोमल सुरस रसीले पुष्प दोनों । जिन्हें देख पुष्प भी अपने में असामर्थ्य पाकर छिप जावें । इसलिये उपमा ही नही होती इनकी सहज सरस् कोमलत्व की कोई । सब उपमाएँ झूठन सी । अपितु वास्तविक सरस् उपमेय तो यही युगल-लाल जिनके झंकृत रस से किंचित अणु सौंदर्य कण इस धरा पर गिर जाते । शायर कहते है आँसू भी मीठे लगने लगें सच क्योंकि नेत्र कमल से हो जाते और और अश्रु शहद ही हो जाते इनके दर्शन से । मकरन्द के अतिरिक्त कुछ उनके सहज सुवास को भी नहीँ छू पाता है । सत्य अति सरस् ।
अब यह हमारी भावना कि कभी हमारे नेत्रों में इतना तो माधुर्य हो कि पुष्प को कोई नवजाति के पुष्प का भृम ही हो जाएं ... फिर सरस् युगल को हम कभी पद मकरन्द से निहारने की भावना विकसित करें ।
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