युगल की नित्य स्थिति को .. मान , तृषित

अब तोहे कहूँ मान ...

मान का होय ?
(नित्य लीला का मान , बाह्य रूप मान नहीँ यहाँ)
मिलई रहत मनौ कबहुँ मिले न ... इस स्थिति में जो मान प्रकट वह क्या है ...
मान कौ रसिक अबोलन भी कहे है । 
गहन रसान्त में लाडली जु मान न जाने , प्रेम को नेम ही मान रूप होय । सर्वस्व समर्पित युगल है ... ... दोनों एक रस । दोनों तत्सुखिया । दोनों रिझावत ...
लाल जु ... प्रेम करत करत नैनन में देखत देखत , देखत-देखत अति व्याकुलित हो जावे । अति ।
न देखे तो व्याकुलित रह्वे । देखे तो व्याकुलित रह्वे । लाडली जु तब सोचें ... लाल जु को रस न मिल रह्यो । काहे नैन में नैन मिलाय अकुलाय । तब लाडली जु नीचे दृष्टि कर लें ... कि मो से लाल जु को रस देवत न बन्यो ।
... लाल जु लाडली जु को ना देखे तो व्याकुल । देखे तो अति व्याकुल । फिर लाडली जु उनकी व्याकुलता से स्वयं संकोच वश दृष्टि झुका ले तो लाल को लगे कि मान कर ली । अब लाडली उन स्थिति में गहन चली जावे .. विचार करे कौन विधि सुख लाऊँ लाल को । यें सोच अकुलाय । तब लाल व्याकुलित मनुहार करें ... लाडली सोचे देखेंगे तो और पीड़ा ही होगी तब लाडली स्वयं में आंतरिक सेवा असमर्थता में डूबे । वह क्षण लाल को मान लगे है ... नित्य मिलन में । नित्य मिलन जहां नित्य सँग है ।
जब लाडली सखी से जाने लाल जु की दशा और भाव दशा से बाहर आवे तो लाल को देखे और व्याकुल लाल को देख क्षणार्द्ध में हृदय से लगा ले । तब लाल को अनन्त तृप्ति मिले । लाली अति नेह करें ... व्याकुलित लाल से प्रेम में वात्सल्य मयी होय प्रेम लाड दे । अर्थात लाल जु बड़े सूकोमल जाने वे । मेरे लाल तुम कैसे ऐसे व्याकुल हो गए ... मैं तो अपनी ही सेवा हीनता में खो गई थी । अबोलना ... भाव रस देते - देते जब वह , खो जाए । वही बाहर मान है ।
वस्तुतः वह आंतरिक मानवती नहीँ हुई ... क्योंकि मान के लिये द्वेत की आवश्यकता है । पृथक सत्ता या रसास्वादन की । लाल जु का रसास्वादन ही लाडली जु का रसास्वादन है ... परन्तु लाल जु भोले से ... वहाँ । वहाँ वह चपल नहीँ , और लाडली की रूप माधुरी में सर्वस्व उनका आकुलित हो ही जाता , हृदय में वह लाडली जु के प्रति पद नख प्रभा और चरण रज को ही आश्रय भी मानते तो प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों भाव एक समय उनमें तब होते ... वह भी तो तत्सुखिया है , लाडली जु के सुख (सजी श्रृंगारित लाडली जु , क्यों सजी ? लाल जु के सुख को ... परन्तु तत्सुखिया लाल जु श्रृंगारित श्री किशोरी प्रभा में मोहित हो जाते है ... और रस दान में असमर्थता से नैन दर्शन में किशोरी जु के अति तत्सुख से व्याकुला जाते है । परन्तु लाडली जु भी गहन तत्सुखिया है वह प्रति पल यही हृदयस्थ कर पाती है कि क्या मेरे प्राण श्री मोहन , कुछ संतुष्ट हुए मेरी सेवा से ... ) ... परस्पर एक रस और परस्पर तत्सुख से केलि में नयन या भाव अंग सँग होते हुए सन्मुख सुख चिंतन में अकुला जाते है । यही बाहर मान है ... वस्तुतः मान श्री किशोरी की परिभाषा से परे है । परन्तु लाल जु को वह उनका मौन ही मान लगता है ... प्रेम में स्वीकृति भी बाह्य मानवत लगती है ... प्रेमी ही इसका चिंतन कर सकते है कि वास्तव में वह मान जो लग रहा वह सूक्ष्मतम प्रेम है । और अगर अब किशोरी जु से पूछा जाए काहे मान की ...तो लाल जु के व्याकुल नैन स्मरण की उस वेदना को विस्मृत करने हेतु वह उस वेदना से सहज यह मान रस अपना स्वीकार कर उस लीला को बाह्य रूप दे कह सकती है ...सखी कब से लाल मोहे , निहार रहे । मोहे विलम्ब होय । हिय की न समझे , बस नैनन में डूब अकुलावत रहे । कोई वेदना है तो बताए काहे न दे , हम सखी वेदना निवारण को ही तो लाल की सेवा हुई  है , सो ... सखी । वास्तव में मौन ही यह मान है ... ।
"तृषित" । जयजय श्यामाश्याम । श्यामा जु को रस स्वीकार्य सर्व सृष्टि को प्राण तत्व है और युगल रस विश्राम को निमेष ही प्रलयात्मक प्रकाशित होवें ... प्रलायात्मक स्थिति से हम कभी होंगे नहीँ , हम है ... प्राण है ... श्याम सुंदर सर्वत्र है ... तो कही उन्हें सर्वत्र इस वसुदेव सर्वम वितरण प्रणाली की सेवा से श्रमित जान सुख विलास विश्राम भी प्रदान किया जा है । युगल विश्राम ही श्री प्रभु का शयन-कक्ष अर्थात रंगमहल है । यह विश्राम जीव विश्राम नहीँ है , न यह कक्ष जीव के भोग कक्ष सा है ... वस्तुतः सहज कृपा शुन्य जीव जगत भगवत तत्व के इस विश्राम का सहज तत्व की कृपा बिन अनुभव , दर्शन और चिंतन ... मनन नहीँ कर सकता । भोगी भोगार्थ सदा ईश्वर को जगाता है ... प्रेमी उन्हें श्रमित जान सेवा - विश्राम सजाता है ।

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