भाव में समय नष्ट नहीँ होता , तृषित

भाव उदित जीव जीवन का एक मुहूर्त समय भी नष्ट नहीँ करता --

जी । भाव स्थिति वस्तुतः अति गहन निर्मल और मिलन प्राप्त सौरभ से नित्य विकसित अवस्था है ।
वास्तविक शुद्ध सत्व जो भाव है , वह ऐसी स्थिति है जैसे वधु ... आज अभी विवाह होना । वह दिन प्राकृत जगत में वधु के लिये जो महत्व रखता वैसा ही सम्बन्ध भाव का ।
भाव स्वयंप्रकाश होकर भी प्रकाश्य रूप से आविर्भूत होता है ।
भाव और भावाभास भिन्न है ।
रुदन , स्पंदन , कम्पन , सबमे हो सकता है । परन्तु वास्तविक भाव में न्यूनतम भी वृथा नहीँ है । वहाँ वह भाव ही प्रकाशित है ... जिस स्वरूप में वह भाव है , वह स्वरूप उपकरण मात्र है वहाँ ... !! आज भाव को उपकरण समझते हम और प्राकृत स्वरूप को भाव सिद्ध ।
वास्तविक भाव जब भी प्रकट होता है , वह बाह्य अपेक्षा रखता ही नहीँ । अब जिनमें वह प्रकट होता है , वह जितना यह तब जान ले कि यह तो मेरे लिये भी नव नूतन स्थिति थी तो यही भाव । अर्थात भाव अभ्यास नहीँ है । हाँ आज बाह्य रूप से अभ्यास रूपी साधना भाव को विचलित कर सकती है । क्योंकि भाव तो भाव है , वह परिणाम है ।
भाव नित नव रस है ... नव सुगन्ध है । भाव की गाढ़ता हो । कैसे होगी ... ??? भाव के अतिरिक्त कही प्रीत न हो । भाव में ही प्राण बहे । भाव की दृविभूत धरा पर नयनों से , श्रवण पुटों से भीतर गिरते प्रियतम के स्वरूप से प्रेम पनपने लगता है । दृविभूत हृदय कभी साधनों से नही होता है । अपितु साधन से दृविभूत हृदय भी अहम को पुष्ट कर विकार से भर जाता है । साधना आज हित क्यों नही कर पाती , क्योंकि कर्त्तत्व का बोध छूटता नहीँ । वास्तव में भाव को श्रवण , दृष्टि कुछ भी प्राकृत चाहिये ही नही ।
उसे सब रसमय चाहिये । अहंकार के नेत्र रस नहीँ बना सकते । प्रेम के नेत्र तो जीव के नहीँ , कृपा से उसमें प्रकाशित भर है । रसिक वाणी , भाव , दृष्टि सब सत्य है ... वह वास्तविक स्थिति पर खड़े है अतः उनके रस के आश्रय से वह श्रवण दृष्टि प्राप्त हो सकती है । पर हम देखते है , जिसे अहंकार होना है उसे इस अनुपम रस कृपा का भी अहंकार हो जाता है , रसिकों की शरण में भी मैं खड़ा हो जाता है ।
इसी जीवन में शिशु रूप माँ के नेत्रों से बालक जीने लगा था । माँ का अहितकर उसे अपना अहितकर लगा । वह शून्यता प्राप्त कर ले ऐसी तो रस को सुन सकता है  , भाव और रस के दिव्य खेल को देख सकता है । परन्तु यहाँ मै कही नहीँ । यह सब वैसा ही है जैसे किसी कंकाल में धूपबत्ती की सुगन्ध प्रवेश कर जाएं , अब कंकाल कहे मैं महक उठा तो वह उस दिव्य सुगन्ध पान को मैं कह कर स्वयं वंचित रह जायेगा । और वह जान गया कि यह सुगन्ध मेरे खाली पन से गुजरी तो वह उसके लिये पुनः - पुनः व्याकुलित होगा ।
इतनी बातों को रस पथिक थोड़े पढेंगे यह तो हम अपने द्वन्द के लिये लिख लेते है ...
एक और बात , रस पथिक या वास्तविक प्यासा कभी अभिनय नहीँ करता । रस - भाव का अभिनय सम्पूर्ण कृपा का अपमान है ।
दूसरी बात , रस और भाव सर्व सामान्य में प्रकट भी जब तक नही होता जब तक बाह्य बोध शून्यता पूर्ण  न हो , स्थिर भाव ना हो । संचारी भाव के हम पथिक तो एकांत के प्यासे भावार्थ । स्थिर भाव को सर्व रूप कोई विघ्न नहीँ । परन्तु संचारी भाव , जिनका प्रपंच शेष उनका भाव सम रसिको और एकांत में ही गहन प्रकट होता है । अथवा जहाँ भगवत विधान में वह आवश्यक वहाँ भी । कभी कभी भाव दर्शन से संसार भावुक का स्वयं त्याग कर देते , पागल जान । तो प्रभु कृपा से वह प्रकट हो सकता है । वैसे स्थिर भाव अर्थात गाढ़ अखंड नित्य दृविभूत हृदय स्थिति ना पक जाए तो अधिकत्तम गोपनीय ही रहना चाहते ऐसे साधक ।
भाव स्थिर होने अर्थात संसार की पूर्ण विस्मृत अवस्था और भगवत सम्बन्ध की ही सिद्ध अवस्था होने पर संसार कुछ नहीँ कर सकता । फिर देह वस्तु मात्र है । और जीवन भाव रूप नित्य प्रियालाल का संगी । स्थिर भाव के सिद्ध भावुक की कृपा सहज होती है , कहने की भी आवश्यकता नही कि कृपा कीजिये । वह धुप की तरह रस सौरभ वितरण मात्र को शेष होते है । ... तृषित ।

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