द्वंद में भगवत सम्बन्ध , तृषित

सत्य कहूं खुल कर ... मेरा अधिकतम संग वह हो अगर हो तो जिसमें जो उनसे सम्बन्ध है वह ही स्वीकार्य होता हो ।
अगर ऐसा संग नहीँ तो वह सम्बन्ध जीने की पीड़ा रहे ... व्याकुलता में उस सम्बन्ध की प्रकट अनुभूति होगी और बाहरी द्वंद से वह सम्बन्ध व्यक्त नहीँ हो सकेगा ... व्याकुलता अर्थात अभिव्यक्ति नहीँ हो रही । अनुभूति तो हो रही कि हम उनसे ... यह सम्बन्ध रखते है ।
आप जब तक धरा पर हो , मीरा या सूरदास ही हो जाओ । सारा संसार तो कभी नहीँ मानेगा वह सम्बन्ध तो व्याकुलता रहे भीतर । भीतर वह सम्बन्ध खूब रोये और बाहर यह देह उस रुदन को प्रस्तुत न करें । बाहर बने रहो जो बन गए हो खेल खेल में । परन्तु खेल - खेल में बन गए हो , हो नही , सम्बन्ध मिथ्या नहीँ , वह प्राप्त हो गया अर्थात सब कह दिए वे जो हम भूल गए थे ... मिथ्या यह दृश्य रूप है ।
और हाँ जिनका भगवत सम्बन्ध आप जानते है , उन्हें हृदय में उस सम्बन्ध से मान लीजिये इससे भगवत पथिक को आंतरिक सन्तोष होगा जिसके परिणाम में प्रभु की अपार करुणा बरस पड़ेगी । हृदय में ... वाणी पर कहे हम ... सखी । पर हृदय में इन्सान ही माँ माने तो ।
अतः ... हृदय में धारण रहे यह रस । किसी के भी सम्बन्ध को पुष्ट कीजिये , जब करेगे तब स्वतः आप अपने सम्बन्ध को जी रहे होंगे । जयजय श्यामाश्याम । तृषित ।

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