अति बाँके , तृषित

*अति बाँके*

प्रेम की एक नवेली माधुरी है ... विचित्रता ।
सत्य में प्रेमी से हम मिले तो हमें एक निश्चित्र अनुभूति होगी वह है ... विचित्र  !! अलबेला !! या बंकिम मधुरिमा।
           प्रेमी अगर किसी को समझ आ गया तो वह प्रेमी ही नही । प्रेमी की चाल एक त्रिभंगी छलाँग है ... सारँग(हिरण) सी ...
प्रेम रूपी हृदय की पोखर से छिपी छुअन कभी बाहर आती ही नहीं । वह हृदय भरा होता है अपने प्रियतम को भरे हुए । ... संसार किसी को समझ गया है तो वह तो अनित्य ही वस्तु होगी कोई संक्षिप्त काल-खण्ड की ... प्रेम की कोई छोर नहीं ... प्रेमी को नही समझ सकते ।
वह कब-क्या कर रहा है इससे उसे कोई सम्बन्ध न हो कर भी सब कुछ प्रियतमार्थ ही जीना और पीना होता है प्रेमी के जीवन में प्रियतम का रस है...  और प्रेमी के हृदय में नित्योत्सवों का वास है ... बाह्य वह अखंड व्याकुल हो उसके हृदय में एक आनन्द छिपा ही है । प्रेमी विचित्र होते है ... सम्भव है कि प्रेमी की क्रिया विपरितात्मक हो ... क्योंकि उसके नेत्रों की अश्रु भी उसके उत्सव की सूचना है ... प्रेमी तो रूदन के लिए भी रोता है , रुदन भी उत्स भर रहा होता है उसमें भीतर... संसार रोने से बचने के लिये हँसने का अभिनय करता हुआ रोता है ... तृषित है प्रेमी , क्योंकि वह व्याकुल है प्रेमास्पद के नित्य नवीन सुखों के लिये । प्रेमी में अपनी ही उलझनें और प्रेमास्पद के सुखों की सुलझने भी गूँथन वत अलबेली है ।
प्रेमी और उसका प्रेम अपरिभाषित है ... अतः जिसके व्यक्तित्व या स्वभाव को आप परिभाषित करने का सामर्थ्य रखते हो वह प्रेमी नहीं । सत्य में तो सहज सरस निर्मल प्रेमी वह है जिसे सारा संसार मिल कर भी समझने में उतर जाए तो भी प्रेमी समझ नही आएगा अपितु प्रेमी का सँग उलझा ही देगा ऐसी मधुर रसीले कौतुकों से कि फिर उनसे कभी छूटने के सामर्थ्य की ना हो सकेगी । प्रेमी की छबि को भी कोई कैसे निहारें क्योंकि प्रेम वह चित्र जो परस्पर नयनों में बसा है... । प्रेम परस्पर जीवन-प्राण-सुख और उस सुख की तृषा का परस्पर उमड़ता गहनतम सिन्धु है... इत-उत की उत्ताल तरंगों में बरसता झूमता सागर है प्रेम नभ पर घनश्याम हुआ ..रस की मादक बरखा है प्रेम । कौन सुन सकता है पात-पात और फूल-फूल की बात , फूल से भृमर की बात , खग-खग की बात ...जो सुनकर खेल रहे हो इन विचित्र अलबेली अनूठी ना सुनाई आती बातों को ..वह ही श्रीश्यामाश्याम बाँके प्रेम के अलबेले श्रृंगार है ... इन्हें खेलना होता है श्रीविपिन सुख बिहार को ...कुँज-निकुँज सब का सुख एक सँग - एक रूप में श्री अलबेले बाँकेबिहारी जुगल निभृत प्राण । बंकिम चाल (नाग वत लहराती) इस प्रेम रस की ...नागर सँग नागरी ही और नागरी सँग नागर ही इस अलबेले विचित्र कौतुकों के सागर में सँग-सँग एक हिंडोल में झूमते हुए गाते है अलबेला कोक विलास ...रोम-रोमहिं जोई दृग होईं जावै , पुलकै पलक अनेक ना अघावै ...सघन गहन इस कोक माधुरी के रास को पीने के लिये रोम-रोम नैन हो ...साधारण नैन भी नहीं ...रस पीना है तो उसी रस की नैन हो ...युगल रस तृषित भरी ...रस की नैन हो ...सैन रसिली नैन रसिली ...बैन रसिली रैन रसिली ...मैन रसिली गैन रसिली ...रस की नदी का मार्ग भी तो अलबेला है ...रस की संस्कृति ही माँगती है और और ...अलबेला सुख ...युगल तृषित । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

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