रस भाव की पकड़
उनका सुख । यह चिन्तन पक्का हो जाये । तो सम्भव है बाहर जीवन विचित्र लगे । पर आपका हृदय जानेगा हो रहा है , उन्हें ही सुख । और बाह्य या आंतरिक किसी कुंठा से उनके सुख में कुछ भी बाधा हुई तो गहनतम पीड़ा सताएगी । ऐसी स्थिति अपने विकार से आती । और स्व पर भी क्रोध बाहर स्व पर प्रकट नही होता । हृदय का प्रति भाव पुष्प की तरह सरस् हो जाएं ... अपने ही विकार रूपी काँटों से भी आंतरिक हृदय में उनके सुख को बाधा न हो । ऐसा साधक पूर्णतः बाह्य से स्व तक सब सँग छोड़ना चाहता है ।
इसलिये वृन्दावन कृपा । वहाँ बाह्य विक्षेप से भी रस नही छूटता । वहाँ हृदय पर भाव पुष्प पूर्ण बन्द कभी नही होता ।
भाव में डुबकी कृपा तो भाव से छूटना भी कृपा हमें लगे । हम विक्षेपक को रावण नही राम ही मान ले । तब भाव नही टूटेगा । उनकी कृपा से वह गये तो पीड़ा भी रसीली होगी । जिससे बाहर भी किसी को पीड़ा न हो । यह वह कहे ... आंतरिक रूप ।
दूसरी बात , अपने भाव का नहीँ , सबके भाव की गहनता का चिंतन हो । हम चिन्तन करें सब उन्हें खूब दुलार करे । खूब नेह करे । खूब प्रेम करे । फिर भाव नही छूटेगा ।
हम स्व हेतु ही चिन्तन कर पाते । हम चिन्तन करे कि प्यारे प्यारी अमुक सखी पर सहज रस की कृपा करें । सन्त कृपा सबको मिले । ब्रज रस की पुलकन में सब डूब जावें ।
परस्पर रस खण्डन सहज है। परस्पर रस गहन हो यह भाव सहज होकर भी असहज ।
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