त्रिगुण पाश से पहले वृन्दावन वास की योग्यता नही हमारी , तृषित
वृन्दावन वास की योग्यता नही हमारी , सन्त बहुत कहे है , त्रिगुण ने छुआ तो वृन्दावन प्रकट न होगा । लक्ष्मी जु लक्ष्मी हो कर प्रवेश नही करती । क्योंकि वह राजसिक स्वभाव की अधीश्वरी । सत रज तम के गुण नही हमारे में सत रज तम के विकार । गुण रूप भी हम तामसिक से सात्विक भी हो तब भी धाम स्पर्श न होगा । निर्मल निर्गुणत्व प्रेम सहज निश्छल हृदय हो । लताओं में कौन वास करें जिसे और कुछ नही चाहिये युगल केलि के सिवाय । हमें तो फेसिलिटी चाहिये होती है ... सो सहज स्वरूप प्रकट नही होता । अब कोई कहे कि सब कहते कि वास करो बस मैंने मना किया । तो वह ही सब होता रहा तो यह मुम्बई से भी गहरा डवलप एरिया भर होगा । सहज निर्मल पथिक उसे बाहर सोने भी न दिया जायेगा । V I P एरिया में निर्मल सहज बाहर से दीन सन्त की एंट्री कैसे होगी । गरीब तो फिर हार जाएगा । अमिर की अमीरी उसे धाम में फ्लैट देगी । रस तो कुँजन में नित्य बिखरा , उसके लिये फ्लेट के सुख से बाहर आना होगा ।
वास त्रिगुण रहते हुआ तो हम वहाँ क्या करेंगे । वास से धाम की मर्यादा की रक्षा भी हो । वास से धाम की पवित्रता बढ़े । जैसे सन्त वहाँ रहे तो हम सबके हित का कर के गये । हम वहाँ क्या करेंगे । सन्तो ने निधिवन सेवाकुंज आदि दिया । हम धाम में कोई नया प्रोजेक्ट लगा देंगे । धाम विहार भूमि है प्रिया लाल जु की ।
अप्राकृत रूप से वहाँ केवल कुंज ही कुञ्ज है । और कुछ नही । न होटल , न दुकान । पर दिखती नहीँ कुञ्ज । और दिखते है बाज़ार । अब कुञ्ज जहाँ दिखती जैसे निधिवन तो भाव बनता है । नहीँ दिखती पर है सर्वत्र वही वहाँ तो हम रहते नही न । कि केवल कुञ्ज ही कुञ्ज है यहाँ नव-नव रस की प्रियालाल सुख को । अनन्त सखियों की अनन्त कुंज है । सत्य तो यह है । अब तीन चार हमें पता तो कल्याण हो रहा । वह भी न दिखे तो । कृपा यह रसिक सन्तो की । पर है केवल वह विहार भूमि प्रियालाल हेतु ।
सेवातुर चित्त रहे केवल वहाँ ... कैसा ? अति निर्मल । रसभोगी नहीँ । ईश्वरीय सुख आनन्द का भोगी भी नहीँ । उनके रस में ... प्रियालाल के रस में सेवातुर जो हो । जिसका चित्त सेवा से विकसित । जिसमें प्रति पल उनके लिये स्मृति । हम दर्शन भी करते हमारे सुख के लिये । सेवक स्वामी के लिये ही खड़ा सदा । दास भाव बहुत सहज है ... श्री प्रियालाल की दासी भावना भरी हो , उन्हें कुछ आवश्यकता तो नहीँ फिर कीजिये वास । धाम प्रिया लाल का विहार है । हमारे भोगार्थ नहीँ इस धरा पर किंचित धरा पर अप्राकृत तत्व प्रकट तो वहाँ उनके विहार का चिंतन रहे । चिन्तन न भी हो तो है उनका ही विहार । धाम लक्जरिटी से भरा शहर भी हो तो भी है उनका विहार , इसमें उनके विहार सुखार्थ लता आदि अदृश्य होगी । जितनी अदृश्य होगी हमारा कल्याण उतना जटिल होगा । जितनी सहज रूप कुञ्ज दो आँखों से दिखेगी उतना पथ सहज । वरन है वहाँ दिव्य अप्राकृत रूप केवल कुञ्ज ही कुञ्ज । वहाँ का प्रत्येक तत्व प्रियालाल परिकरी है । दिव्य रूप । तृषित ।
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