तीन चना एक छोलका , तृषित
तीन चना एक छोलका , ऐसौ अर्थ बिचार ।
बिहारी-बिहारनि-दास-उर-अंचल बीच बिहार ।।
रसिक में तीनों ही स्वरूप । रसिक अर्थात जो रस रूप स्वरूप प्रियालाल के प्रेम सरोवर में डूब गए ।
कितनी दिव्य बात कही , तीन चना एक छोलका । यानि प्रियाजु-प्रियतम और उनके दास तीनों की भावना जहाँ हो । वह रसिक ।
रसिक श्यामसुन्दर का एक नाम है , और वह नाम है उनमें 4 विशेष माधुर्य भावना के कारण । वह रसिक हुए है प्रियाजु के स्वरूप में प्रेम विश्राम से ।
अतः रस शब्द से गूढ में प्रियाजु ही है जो श्यामसुन्दर में भर ही गई है । तो रसिक अर्थात युगल रस । न कि युगल में भेद से केवल कृष्ण ही रसिक है , प्रियाजु के प्रेम सुवास में डूबे श्यामसुन्दर जु जिनमें भीतर रसवत द्रवीभूत स्थिति ही हो गई है , प्रियाजु के प्रेम-परिणय से ।
रसिक में तीनों है ... श्यामसुन्दर , प्रियाजु , और दास यहाँ दास वह है जो युगल स्वरूप के दृष्टा है और गहनता में युगलस्वरूप की दृष्टा सखी है ।
अर्थात यहाँ तीनो रस है ... जीव की शरणागति के परिणाम से वहाँ वहीँ है जहां वह शरणागत । और श्यामसुन्दर के सन्मुख कोई भी शरणागत है तो वहाँ उनकी अंतः भावना फलित होती है , जीव में इतनी बुद्धि या सामर्थ्य नहीँ कि वह गोपी रस में आवें , रसिक गोपी रस से भी सघन स्थिति है । क्योंकि श्री कृष्ण को सम्पूर्ण मन सहित जो रसपान करें वें गोपी । अर्थात दसों इंद्रिय जिसकी कृष्ण रस में डूबी हो और मन भी । परन्तु उसे श्रीकृष्ण रूपी आनन्द की पिपासा है । यह वस्तुतः विशुद्ध कामना है , भौतिक कामना नहीँ , परन्तु कामना तो है ही ।
जीव काम शून्य नहीँ हो पाता अतः ईश्वर ही अनुग्रह कर उसके काम को प्रेम में परिवर्धित करते है । कृष्ण संग की कामना सम्भव है , परन्तु कृष्ण संग सम्भव नहीँ क्योंकि कृष्ण सन्मुख होते ही काम शून्य हृदय होता है और उनके प्रति अपार प्रेम उनके ही अनुग्रह से प्रकट होता है , इसमें कोई कहे यह सब क्या है तो संक्षेप में हम कहे जीव मलिन है , वह कीचड़ सहित आगे बढ़ता है ईश्वर उसके मलिन हृदय में भी कमल रूपी प्रेम विकसित करते है परंतु यह विशुद्ध प्रेम नहीँ , इसका विकास विकार से हुआ है । मलिनता से । अब प्रियतम ही उसके विकसित हृदय में जो कमल है उसे भी दृविभूत कर नवनीत(माखन) सा विशुद्ध हृदय चाहते है , जीव कभी मलिनता को नही त्यागना चाहता । प्रभु की प्रथम सन्मुखता से वहाँ जो प्रेम प्रकट होता है वह जीव को गोपी भाव या कृष्ण का स्व प्रेम लगता है । वह भूल गया कि वह तो इंद्रिय के वशात श्री कृष्ण तक पहुँचा था तो प्रेम कैसे हो गया , भोगासक्ति निर्मल प्रेम कैसे हो गई ?
इसमे अपार अनुग्रह है ... जो हृदय से सकाम भी समर्पित होता है उसे श्रीप्रिया पद रति भावना से स्पर्श कर श्यामसुन्दर निर्मलत्व कर देते है । यह उनका आंतरिक संकल्प ही है कि उनके प्रेम की सन्मुखा केवल श्रीप्रिया ही है । वह प्रेमवत केवल उनके समक्ष प्रकट होते है , अथवा जहां वह प्रेम दृष्टि भी कर दे तो उनकी ही आंतरिक श्रीप्रिया पद मकरन्द सेवन भावना से जीव में वहीँ श्री प्रिया का परमाणु भाव वत प्रेम प्रकट हो उस रस का पान करता है । अब वह श्री प्रिया का जीव की भजन और श्रद्धा के अनुरूप प्रकट महाभाव अति निर्मल और प्रियतम के ही सुख की धरा है तो उनके स्पर्श से धरा तो प्रकट होनी ही है । अब यहाँ भी शरणागति उपरांत भी जीव स्वयं को ही प्रेमपात्र अनुभूत करता है , अब कोई कहे कि जीव के हृदय में प्रियालाल का यह मिलन उन जीवों को अनुभूत क्यों हुआ तो कारण है दोनों ही प्रियालाल स्वार्थ रहित निर्मल प्रेम रस में डूबे है वह परस्पर भोग नहीँ करते और जीव अणु अणु से भोगी है ... वह रसोई से आती सुगन्ध से , अथवा दृष्टि मात्र से पदार्थ के गुण दोष भोगने लगता है , अर्थात प्रत्येक इंद्रिय से भोगी है तो यह निर्मल रस उसके भीतर उठ रहा है और वह भोगी है तो उसे यह अपना और कृष्ण का मिलन प्रतीत होता है । जीव-कृष्ण मिलन कैसे सम्भव है ... जीव विलीन हो , शरणागत हो , विशुद्ध हो , आगे बढ़ सकता है ।
रसिक जीव नही है , वह जगत के लिये जीव है , ईश्वर के लिये वह विहार धरा है ।
रसिक अति भावुक स्थिति है , जिसमें रस रूप श्यामसुन्दर और प्रीति रूप प्रिया प्रकट है , परन्तु रसिक न तो यह स्वीकार करते है कि अहम् ब्रह्मास्मि , न यह तत्वमसि केवलं । एक भावना प्रियतम तो दूसरी श्री प्रिया का प्रेमस्वरूप है । रसिक कहते है दासोस्मि । दास हूँ आपका । अर्थात मेरे भीतर आप हो , परन्तु मैं ईश्वरत्व का लोभी नहीं अतः मैं कृष्ण नहीँ हूँ , मेरे भीतर आपके ही अनुग्रह से विशुद्ध प्रीति का पुष्प खिला जो कि श्री प्रिया जु का भाव रस वह भी मेरे किसी पुरषार्थ से मैं नहीं हूँ । वह तो मेरे शरणागत होने से आपके ही विहार की मूल भावना से आपने ही अनुभूत की है , मुझमें यह विशुद्ध प्रीति आपकी ही नित्य प्रिया है । वास्तविक साधक जानते है श्री श्यामसुन्दर कितने अनन्य है वह वेणु मात्र से श्री प्रिया को बुलाने की भावना से महाभावित रस में डूबी निर्मल श्री प्रिया की कायव्यूह स्थितियों को ही रस प्रदान करते है । तो जहाँ वह दृष्टि अथवा स्पर्श करे तो वहाँ कौन उनके उस अपार प्रेम सुधा को समेटने के लिये प्रस्तुत है । जीव तो तितली के माधुर्य को भी नहीँ समेट सकता वह क्या कृष्ण माधुरी पान करेगा । उसे वहीँ सुधानिधि पी सकती है जो उसे तृप्त करने का सामर्थ्य सहज रस भाव धारण किये हो । अतः मिलन प्रियालाल का ही होता है । परन्तु महाभाव तो यहाँ स्पर्शात प्रकट हुआ , मैं महाभाव राधा हूँ यह भी सहज जीव का रस नही । वह अगर प्रियाप्रियतम् के रस का भोगी हो जावे तो भी कोई अनर्थ नहीँ , यह विशुद्ध भोग है । परन्तु भक्ति यहाँ प्रकट नहीँ हुई , भक्ति तो तब ही होगी जब उनका रस भाव भीतर लहरा रहा हो और वहाँ आप सेवायत हो अर्थात दास (दासी) । तो सहचरी में रस-प्रीति भावस्थली अर्थात रसनिकुंज सभी प्रकट हुये है परंतु सहज रूप वह इस रस समागम की भोग्य अवस्था है तो वह जीव है , और इस रसप्रेम की सेवायत है तो वह सहचरी है । हमने पूर्व में भी बात की कि युगल के सुख का चिंतन जहाँ होता है , युगल के सुख के लिये , युगल जहाँ रहते है ... वह सहचरी है । इस रस को भोगना विशुद्ध भोग है , परन्तु उनके प्रेम को वहीँ भोगे और इंद्रिय लोलुप्ता से शुन्य यह रसिक स्थिति वहाँ दास वत सेवायत हो । सहचरी रस पर क्रमशः ...
तृषित ।
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