रँग पिचकारी मत मारो , तृषित

रँग पिचकारी मत मारो कन्हाई

सखी ... देखो सम्पूर्ण जीवन प्रतीक्षा करती इस अवसर की कैसे इस रस को जीवंत होने पर कहती है ... रँग पिचकारी मत मारो ।
क्या सत्य में वे चाहती है कि प्यारे जु पिचकारी न मारे , हृदय से नित्य भीगी उनके नेत्रों से चलती पिचकारी से ... प्यारी जु । जिनकी उपासना ही प्यारे जु के नेत्रों में सरस् भावना की निर्मल फुलवारी है । वह कैसे उनके रस रँग खेल में अति प्रफुल्लित होकर भी कहती है ... रँग पिचकारी मत मारो ... !!
सच में तो अस्वीकृति ही प्रेम में सहज स्वीकृति है ... जिस क्षण की उपासना जीवन हो , प्रियतम के उस संग में कहे ... कलाई छोड़ो !! क्या सत्य में वह चाहती है ... छूट जाएं कलाई ... न ना ना ... कभी स्वप्न में भी ना ... !! फिर कह क्यों रही है ... क्यों कहती है रँग पिचकारी मत मारो ... यही कथन प्रियतम का निज सुख है ... और इस कथन में अकथन ही श्रीप्रिया को निज भाव रस जो तत्क्षण प्रियतम सुखार्थ ... जीवन्त उस रँग रस को स्वीकृत नहीँ कर सकता । करें तो प्रियतम के हृदय में सुख कैसे होगा ?
रँग पिचकारी चलें ... यह आंतरिक उपासना परन्तु ... जब चलें तब स्थिति ऐसी हो जैसे कभी चाहा ही ना यह ... प्रियतम को निज भाव लगें ... वस्तुतः यह प्रिया के ही हिय भाव की सिद्धि पर ... प्रीत को खेल ... अपने ही सुख को कहत ... रँग पिचकारी मत मारो कन्हाई ... ! कहते ही एक रस , एक भाव में द्विधा आ गई । प्रिया मान ले कि यह तो मेरी ही तृप्ति तो प्रियतम ने अपना कोई खेल खेला यह कैसे उन्हें अनुभूत हो ।
भाव वस्तुतः है ही श्रीप्रिया की वस्तु भूमि । वह श्यामसुंदर के हृदय में भी है तो उन्हें मिला श्री प्रिया से है परन्तु कभी भी श्यामसुंदर के प्रेम रस में प्रकट भाव को को वह यह नहीँ कहती कि यह ही तो मेरा भाव ... ! भावुक रसिक नागर को भाव प्रदान करना ही रस राज्य है ... भाव राज्य है । अपने ही भाव को प्रियतम की भावना जान उसे उनके सुखार्थ खेलना । वरन वह कलाई छोड़ने को कहना क्या ... !! प्राकृत रस कहता है रँग डारो ... अप्राकृत में भीतर आह है डालो रँग  पर इसमें प्रियतम सुखार्थ भावना है ... रँग पिचकारी मत डारो । महाभाव जो भीगना चाहता है उनके रँग में पर भागे उस रँग से ... तब ही तो होगी प्रियतम के हृदय की होरी ...
तृषित

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