हे रस , हे तृषित , तृषित
रसप्रिये ! हे रससार रसशेखर रसिक रास अनन्त रस के रसपियत रसतृषित !!
केलि प्रिये यह जीवन आप की केलि सुख की ही तो सेवार्थ है ... खेलिये !! आप अनन्त खेलिये ... परन्तु प्राण ! खेल रहे आप , इस स्मृति संग भी खेलने लगते हो ...
प्राण ! होली खेलों का खेल है , यह कैसा खेल रहे है आप रँग आया ही नहीँ , आपने रस प्रेम की कोई पिचकारी चला भी डाली पर न दृविभूत यह तन ही हुआ न रसरंग में मन ही बाँवरा हुआ ! प्राण ...
हे प्राणेश , मेरे प्राण स्वभाविक आपकी वस्तु मात्र है , परन्तु मुझमें पूर्ण समर्पण के विपरीत एक द्वंद है , एक कसक ... एक शिक़वा ... एक तृषा ... प्यास की अभिव्यक्ति मेरे अधुरे समर्पण की दस्तक देती हुई । प्यास कि प्यास सदा प्यास हो ... बस प्यास ही मेरी मंज़िल हो ।
परन्तु प्राण ! अनन्त आनन्द स्मृतियाँ मुझे वह रस जीवन नही दे सकती जो अतृप्ति देती थी । प्राण ! आपकी वस्तु कभी रस च्युत नहीँ हो सकती और द्वंदात्मक जो स्वरूप मै हूँ उसमें रस संग रस पान है ही नहीँ । रस में रस की प्यास ... !! प्राण अब साँसों को जल से श्वांस चुरानी नहीँ आती उसे सीधे प्राण वायु चाहिये । प्यास मेरी प्राण वायु थी ...!! आप लौट न जाओ बस यह पीड़ा से कह नहीँ पाती यह प्यास ... प्राण ! मुझमें आप एक प्यास भर थे न ... मैं आपके लिये किन्हीं रस केलियों में रस विक्षेप मात्र ही हूँ । मुझमें आप प्यास वत ही रह जाते ... बिन प्यास प्रिये मुझे ऐसे असहजता होती जैसे कोई नवयुवती चुनर का अभाव अनुभूत करती हो । प्यास मेरा श्रृंगार थी ... हे रसिक ... आप ही तो अनन्त तृषित ... क्या कोई नित्य पिपासा अणु आपके पास होगा नहीँ ।
हे प्राण ! वहीँ खेल खेलिये , जिसमें तृप्ति कदापि न हो । हे प्राण मुझे यहाँ से चुरा कर जो करना है कीजिये । बस मेरे ही भीतर मेरी प्यास बन स्पर्श में भी अनछुए से सदा रहिये ... सदा ... प्यास वत वरण हुए तो , प्यास कभी जाती तो ... एक बटोही मात्र रह जाती हूँ ... हे रस ... हे तृषित ... हे मेरे अन्तस् ! हे प्राण ! हे जीवन ! हे अतृप्त प्राण ... हे आते हुए बसन्त से पहले के प्यासे पंछी ... अब बिन कहे भी सुन लो न ...
तृषित
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