पलकनि की करि सोहनी , तृषित

पलकनि की करि सोहनी , देत कुँवर तिहि कुँज

धरति भाँवती पग जहाँ , रहत देखि तिहिं ठौर ।।

जहाँ जहाँ रँगीली नागरी जु श्री किशोरी जु के छवि पुञ्ज चरण चिन्ह धरती है । ... वहाँ ... वहाँ श्री रसिक कुँवर लाल अपनी पलकों की मार्जनी (सोहनी) बना कर बुहार करते है ।
उनकी भाँवती श्री प्रियाजु के चरण जहां कही भी पड़ते है , रसिक नागर वर लाल उस भूमि को देखते रह जाते है । हे सखी ! रसिक शेखर श्री प्रियतम श्री लाल के बिना और कौन है जो इस प्रीति के सुख को समझने वाला भी है । वही ऐसा दिव्य प्रेम श्री प्रिया पद शरणागत हो निभा रहे है ... शरण्य से बड़ा कोई शरणागत नहीँ ।
आज हम वाणी और भावना से शरणागत नहीँ अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये भावना भर हममें ऐसे समर्पण की नहीँ आ सकती । हमारे अद्भुत निर्मल प्रीति के बाँवरे रसनागरी-नागर जु ।
समीपस्थ बैठे नागर जु का हृदय प्रिया जु के चरणों की जावक रँग रंजित गौर वर्ण प्रभा को देख उनकी ग्रीवा नीचे झुकी रह जाती है । श्री प्रियतम पूर्ण रूपेण सहज रूप से श्री प्रिया चरणों में झुकने लगते है । श्री प्रियतम सहृदय श्री प्रिया चरण दर्शनातुर से स्वामिनी भावात् अपनी भावना को व्यक्त न कर पाने से पराजय स्वीकार कर दास भावना ग्रहण करने को नीचे बैठना चाहते है । श्री प्रिया जु की चरण प्रभा से ऊपर उठ श्रीप्रिया मुखारविंद दर्शन का एक मात्र जिन श्री प्रियतम में समर्थ है वह भी सदैन्य वहाँ प्रस्तुत है । श्री प्रिया जु की अपार सहजता और श्री प्रियतम की अपार दैन्यता के मिश्रण से श्री प्रिया चपल प्रतीत होती है , क्योंकि अति चंचल नागर इनके समक्ष सहज हो उठते है । यहाँ पराजय से ही विजय प्राप्त होती है । चरण समर्पण ही यहाँ प्रेम प्राप्ति की सुधा राशि रूप इस पराजय का प्राप्त असमधुर फल है । अर्थात श्री प्रिया सँग से प्रकट सहज हो पाना रूपी कृपा का भावना रूप का प्रियतम में प्रवेश । यहीँ से प्रेम की सुधा निधि प्रकट होती है । चरण समर्पण । ... तभी प्राप्त सुधा श्री प्रियतम जु को भी वरदान अपेक्षित होता है , जबकि स्वयं श्री प्रिया संकोचता की निधिवत श्री प्रियतम से क्या स्वयं से भी , सखियों से भी ,
अपने दिव्य मधुर प्रेम को प्रकट नहीँ करती ...  नहीँ कह पाती कि वह उनसे कितना प्रेम करती है । "तृषित" । इनके रस सन्दर्भ वाणी रूप में दिये गए है ... और दिये जाने है । जयजय श्यामाश्याम ।

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