परमत्व के सुख की चिंता , तृषित
परत्व की नहीँ परमत्व के सुख की चिंता हमें हो । परम् के सुख में सर्व का सुख है ।
वर्तमान जिसका सुखमय है वह अवसर खो रहा है , परम् को सुखमय करने का ।
जो दुःखी है उसके पास अवसर है , परम् को सुख देने का । दुःखी चिंतन करें , हृदय से प्रभु के पद चापते हुए हृदय के दुःख को भुला दे तो परम् सन्निधि से दुःख का भोग छूट जाता है और परिणामतः अनन्त आनन्द की सन्निधि होती है ।
सुख तो समस्या है ही क्योकि जीव को सुख भोग करना ही होता है ...
सुख देने में ही आनन्द है और सुख लेने में ही दुःख ... सुख का परिणाम दुःख है परन्तु दुःख का निर्मल परिणाम आनन्द है । सौभाग्य से सबको दुःख प्राप्त है , आनन्द अर्थात गोविन्द संग हेतु । परन्तु दुर्भाग्य से उस दुःख का तो स्मरण ही प्राणी को विकट लगता है ।
पर के संग में अभिव्यक्त होने में मेरे द्वारा कल्याण हो रहा यह भाव रहेगा , परम् के संग में मुझे कल्याण सहज मिल गया ।
हृदय में एक तत्व है जो बहुत गहन एकांत पथिक के समक्ष आता है सामने ... शेष को अनुभूत नहीँ हो पाता , वह है प्रीति । यह प्रीति उनकी ही है , उनके लिये ही है , इसे उनसे मिला दीजिये । फिर आप प्रीति के अनुसरण में निकल चलिये । अनुसरण की भी एक अवस्था है ... अनुसरण अर्थात मैं हूँ ... अपनी अनुपस्थिति रस में हो प्रीति प्रियतम ही अनन्य संग हो यह रस है ... यही परम् का सुख । ... मैं नही हूँ ... ... संसार के सामने यह निभना कि मैं नही हूँ यही वास्तविक साधना है क्योंकि जो है ... वह ही है , यह आपका रस है । सामने आप हो ... आप हो ... यह ही तो मूल पीड़ा है । एक पल में संसार सारे रस को किरकिरा कर देता है ... आपको ला खड़ा करता है ... अतः अधिकतम यह एकांत रस गहन हो ... क्या ... प्रीति प्रियतम है संग , और मैं भी नहीँ हूँ ... जब तक हूँ प्रीति के अनुसरण में हूँ । तृषित ।
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