पिय कौ मन प्यारी प्रिया , तृषित
पिय कौ मन प्यारी प्रिया , प्यारी कौ मन लाल ।
पहिरैं पट तन-तन बरन , चलत एक ही चाल ।।
प्रथम तो देह-कर्म-संसार में कुछ भी सत्य जिन्हें प्रतीत हो रहा है वहाँ प्रेम नहीँ है ।
प्रेम शरीर की वासना , या कामनाओं के सँग होता ही नही ।
प्रेम जब है ... तब देह में विषय विकार नहीँ होंगे । अर्थात शरीर के सुख-दुःख न होंगे ।
कर्म बोध जब तक है ... शरणागति सहज न होगी । कर्त्तत्व का बोध है अर्थात देह सत्य प्रतीत हो रही है ।
संसार का सत्कार ... माला आदि असर करती है तो संसार का थप्पड़ भी करेगा । वही व्यक्ति जो सेवक है भक्षक भी हो जाता है ... संसारी है तो । अतः भोग जगत प्रेम जगत की कल्पना भी नही कर सकता ।
श्री श्यामसुंदर तो कृपा कर मलिन जीव से भी सम्बन्ध बना लेते है ... यह उनकी सहज करुणा है । परन्तु विषयी जीव श्री किशोरी जु का चिंतन नहीँ कर सकता । क्योंकि प्रेम का अणु ही निर्मलत्व से विकसित होता है तो श्री किशोरी जु निर्मल प्रेम स्वरूपा है । देहासक्त - भोगासक्त या कर्मलोलुप्त तीनों ही श्री किशोरी जु की कृपा से शुन्य है । इसमें विकार से कृपा अनुभूति नहीँ है । विकार निवृत्ति हुई कि सहज कृपा प्रकट ।
कर्म या कृपा दोनों सँग स्वीकार नही हो सकते । भगवान के निर्मलत्व का अनुभव हो और अपनी दुदर्श किचता अनुभूत हो तो समझ आती है सहज कृपा ।
यह पथ कृपा शक्ति से प्रकट है ।
श्री किशोरी पद नख प्रभा का चिंतन सत रज तम तीनों ही रूप सम्भव नहीँ । निर्गुण प्रेम हृदय ही यह रस पान कर सकता है । देवादि - ब्रह्मादि यह चिंतन नहीँ कर सकते । क्योंकि वह चिंतन स्वयं का विस्मरण करा देता है । स्वरूप को अहंकार की आवश्यकता होती ही है ... ब्रह्मा जी स्वरूप विस्मरण कर ले तो ब्रह्मत्व पद पर कौन आरूढ़ होगा । अतः दायित्व कर्त्तव्य शुन्य निर्मल प्रेम हृदय हो । तब विशुद्ध प्रेम की छटा प्रकाशित हो सकती है ।
श्री किशोरी जु का नाम ही भोगी को भगासक्ति से दूर करने का सामर्थ्य रखता है और भोगी जीव को नाम का ही आश्रय रखना चाहिये । परन्तु जब हृदय में श्री प्रिया जु का स्वरूप और लीला प्रकट हुई हो तब वह क्षण स्व की विस्मृति का परिणाम है । कृपा न्यून या अधिक नहीँ होती । विस्मृति कितनी गाढ़ी यह भावना पर रस भाव खेल दृश्य होता है ।
यह रस अनादि-अनन्त है अतः प्रेमी को व्यसन हो ... प्रेम स्वयं व्यसन है । व्यसन अर्थात , स्वरूप विस्मृति । फिर मिला भाव स्वरूप तो कृपा है । वह मैं हूँ यह बात है ही नही । वह भाव स्वरूप देह जिससे रस भाव लीला चिंतन सिद्ध हो रही वह कृपादेह है ।
निर्मल प्रेम पथिक कभी स्वयं के निज स्वरूप अर्थात् भावदेह को साधन प्राप्त नही मानते यह कृपा देह है । कृपा का ही देह रूप श्री प्रभु से नित्य सम्बन्ध रूप सिद्ध है ।
विस्मृति की गाढ़ता अनुराग की नव नव और गहन स्थितियों तक ले जाती है । हमारे सँग की रस भावनाएं जब भाव डुबकी से रस आलोड़न की प्रसादीवत कोई भाव पद या लीला झाँकि लाती है तो वह बहुतों को कल्पना भी लगता होगा । यह दृविभूत हृदय की लेखनी या वाणी इस पथ के पथिकों की सुधा है ... प्रेमी पथिक की प्यास -क्षुधा सब है ... हृदय पिघला हुआ हो । और दृविभूत हृदय को ही रसिकों ने स्थिर भाव कहा है । सँग के वह लीला पथिक जिस डुबकी में सहज उतरते ऐसा लगता है कि युगों की साधना से भी कोई ऐसा सम्भव नहीँ कर सकता । यह साधक और भौतिक जीव चिंतन करता है । परन्तु तत्क्षण सत्य वह झाँकि हुई है और बहुत सी गहन स्थितियाँ श्री रसिकवाणियों में अक्षरसः है । परन्तु इन नव कोपलों ने कभी उन वाणियों का आश्रय नहीँ लिया । हाँ वाणियाँ ही कृपावत प्रकट हुई क्यों ... वास्तविक विस्मृति से वास्तविक स्मृति ही सिद्ध होती ।
यह वृन्दावनिय विहार अनुपम है यहाँ युगल और सखी का आस्वाद्य रस केवल प्रेम है । जिस प्रकार श्री नागर लाल जु की मनस्तत्व केवल प्राणप्रिया हैं , उसी प्रकार प्रिया का मनस्तत्व प्रियतम श्री लाल जु है । प्यारी-प्यारे एक प्राण है , एक मन है , श्री नागर जु ने प्रिया रँग में स्वयं को रँग लिया है वैसा श्रृंगार कर और नवल नागरी किशोरी जु भी नील वस्त्रों और नील मणियों से प्रियतम से अभिन्नत्व को ही श्रृंगारित किये हुए है । दोनों की एक गति , वाणी , स्थिति है । संसार द्वेत अवस्था है ... प्रेम अद्वेत का विकसित जीवन । अद्वेत के पथिक डरते डरते अद्वेत को सिद्ध कर पाते और सर्वत्र अद्वेत भाव का जीवन कल्पना नहीँ कर सकते । प्रेम वही अद्वेत जीवन है । प्रेम वही स्पंदन है । दोनों और एक प्राण ... एक स्थिति । परस्पर सम्पूर्ण निर्मल सहज समर्पण । जीव और ईश्वर के समर्पण में भी ईश्वर का समर्पण गहन है ...ईश्वर की निष्ठा ... भावना ... सब विशुद्ध है जीवार्थ । जीव संदिग्ध है ... उसे विश्वास ही नही श्री प्रियतम प्यारे प्रभु कुँजबिहारी जु पर । वह कुँजबिहारी जु का तनिक भी सँग करेगा उसे उसकी सम्पूर्ण क्षमताओं से अधिक रस भाव स्थिति अर्थात श्री प्रिया का दर्शन श्री प्रभु करा देंगे । श्री प्रिया अनुभूति ही जीवत्व का योगमाया या कृष्ण कृपा से भंग होना है । जीव विशुद्ध प्रेम स्वरूप का क्या चिंतन करेगा जब ब्रह्म-शिव आदि मौन उनके विषय में । श्री प्रिया चिंतन में डूबे रस चरणों में नित्य तृषित नमन । जयजय श्यामाश्याम ।
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